भारतीय हॉकी: आखिर फैंस कब तक बर्दाश्त करते?

राजेंद्र सजवान

देश के कुछ जाने माने हॉकी एक्सपर्ट, जानकार और वरिष्ठ पत्रकार भारतीय हॉकी टीम द्वारा विदेश दौरों पर किए गए प्रदर्शन को लेकर बहुत उत्साहित हैं और यह उम्मीद पाल बैठे हैं कि भारत को इस बार ओलोम्पिक पदक मिलना लगभग पक्का है। लेकिन उन्हें इस बात का दुख भी है भी है कि अपनी टीम को उसके अपने फैंस का बराबर सपोर्ट नहीं मिल रहा है। जर्मनी, ग्रेट ब्रिटेन ,आस्ट्रेलिया जैसी मजबूत टीमों के विरुद्ध शानदार प्रदर्शन करने वाली भारतीय टीम का मनोबल बढ़ाने के लिए खेल प्रेमियों से बाक़ायदा गुहार लगाई जा रही है।

इसमें दो राय नहीं कि राष्ट्रीय टीम के लगातार गिरते प्रदर्शन के कारण खेल प्रेमी हताश और निराश हो गए हैं। 1980 के आधे अधूरे ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने के बाद से भारत ने हॉकी में कुछ खास नहीं किया है। तत्पश्चात हर ओलम्पिक और अन्य बड़े मुकाबलों में हार मिलती आई है। ऐसे में फैंस का खेल मैदानों से दूर होना स्वाभाविक है। लेकिन हॉकी प्रेमियों के अलगाव का बड़ा कारण कुछ और भी है।

सिर्फ ओलम्पिक में ही भारत का प्रदर्शन नहीं बिगड़ा, एशियाई खेलों में भी टीम का रुतबा पहले जैसा नहीं रहा। कभी पाकिस्तान कड़ा प्रतिद्वंद्वी होता था। आज कोरिया और जापान जैसे देशों से पार पाना भी मुश्किल हो रहा है। फिर भला कैसे मान लें कि हॉकी प्रेमी मैदान का रुख़ कर पाएँगे। लेकिन सबसे बड़ा कारण देश भर में हॉकी के प्रचार प्रसार की कमी है।

कभी देश की राजधानी दिल्ली हॉकी का हब्ब थी| नेहरू हॉकी टूर्नामेंट, शास्त्री हॉकी, महाराजा रंजीत सिंह टूर्नामेंट और कई अन्य आयोजन दिल्ली के शिवाजी स्टेडियम और नेशनल स्टेडियम पर किए जाते थे। 2010 के कामन वेल्थ खेलों के आयोजन के बाद से दिल्ली के दोनों हॉकी स्टेडियम लगभग सूने पड़े हैं। कारण सरकारी नकारापन हो, हॉकी की राजनीति हो या स्थानीय इकाइयों की दादागिरी लेकिन पिछले कई सालों से दिल्ली में हॉकी के मेले नहीं लगते। नतीजन हॉकी प्रेमी बेहद नाराज़ हैं और कई एक ने तो हॉकी की बात करना भी बंद कर दिया है।

यह सही है कि लगातार खराब प्रदर्शन के कारण हॉकी के चाहने वाले मैदानों से दूर हो रहे हैं। लेकिन जब देशवासी कई कई सालों तक अपने खिलाड़ियों के चेहरे नहीं देख पाएँगे तो उनके बारे में कोई क्यों सोचेगा? हाँ, हॉकी इंडिया ने हॉकी का हब्ब दिल्ली से शिफ्ट कर उड़ीसा कर दिया है। नतीजन दिल्ली के हॉकी आयोजक लगभग तबाह हो चुके हैं। जालंधर के सुरजीत हॉकी टूर्नामेंट का हाल भी बुरा है। पूर्व हॉकी ओलम्पियनों और अन्य खिलाड़ियों का मानना है कि सालों साल खिलाड़ियों को कैंप में पाला पोषा जाता है फिर भी नतीजे ज़ीरो रहेंगे तो कोई क्यों कर हॉकी की बात करना चाहेगा।

जहाँ तक यूरोप दौरे पर और अन्य आयोजनों में टीम के प्रदर्शन पर पागलपन दिखाया जा रहा है और भारतीय टीम को ओलम्पिक पोडियम की दावेदार माना जा रहा है तो ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। पिछले पचास साल से यही सब चल रहा है। हर ओलम्पिक से पहले ऐसे ही नतीजे देखने को मिलते हैं। लेकिन जब अग्नि परीक्षा होती है तो कभी आखिरी सेकंड की चूक भारी पड़ती है तो कभी कोई और बहाना लेकर स्वदेश लौटते हैं।

जो लोग रैंकिंग में सुधार को शुभ संकेत बता रहे हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपनी टीम पोलैंड, कोरिया,जापान या किसी भी हल्के प्रतिद्वंद्वी से कहीं भी कभी भी पिट सकती है। तो फिर ऊंची रैंकिंग किस काम की? फैंस का क्या दोष? वे भी आख़िर कब तक बर्दाश्त करेंगे? हाँ, इस बार पदक मिला तो हॉकी को फिर से क्रिकेट की तरह लोकप्रियता मिल सकती है।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं. )

 

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