पाने से ज्यादा ‘आजादी’ को बचाना मुश्किल

निशिकांत ठाकुर
अंग्रेजों ने कहा था, ‘अगर हमने कभी भारतीयों को शासन चलाने की छूट दे दी तो यहां अराजकता फैल जाएगी।’ अपने ईश्वर को याद करते हुए अंग्रेजी हुकूमतदानों ने कहा था, ‘किस तरह का भ्रम, कैसी अव्यवस्था और उलझन के साथ बदहाली यहां छा जाएगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। जबकि, यदि हिंदुस्तान हमारे अधीन रहा तो यहां के महान लोग कहीं भी जा सकते हैं, किसी भी लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं। लेकिन, यदि उन्हें अपने पर छोड़ दिया जाए तो यह सही नहीं होगा, क्योंकि शासन या राजकाज में वह अभी बहुत ही कच्चे हैं और उनके तथाकथित नेता घटिया किस्म के हैं।’

ऐसे विचार भारत और इंग्लैंड में रहने वाले अंग्रेजों के मन में बुरी तरह छाए हुए थे। राजनीतिक रूप से कहा जाए तो इस तरह की विचारधारा के सबसे बड़े पैरोकार विंस्टन चर्चिल थे। सन 1940 के दशक में जब भारतीय स्वतंत्रता का विचार व्यापक रूप से अपनी मंजिल के करीब पहुंच गया था, चर्चिल ने कहा था कि उन्होंने ब्रिटिश सम्राट के पहले मंत्री का पद इसलिए नहीं संभाला कि इससे वह साम्राज्य के विघटन में भागीदार बन जाएं। चर्चिल ने यह भी कहा था कि अगर ब्रिटिश भारत से चले जाते हैं, तो उनके द्वारा निर्मित न्यायपालिका, स्वास्थ्य सेवाएं, रेलवे और लोक निर्माण की संस्थाओं का पूरा तंत्र खत्म हो जाएगा और हिंदुस्तान बहुत तेजी से शताब्दियों पहले की बर्बरता और मध्य युगीन लूट-खसोट के दौर में वापस चला जाएगा।
कहावत है कि मानव रक्त का स्वाद लग जाने पर शेर ‘आदमखोर’ हो जाता है। फिर हत्या ही उसका एकमात्र इलाज माना गया है। 17वीं शताब्दी (1608) से सन् 1947 तक अंग्रेज हमारा तरह—तरह से दमन करते रहे, कुचलते रहे, हमारे देश से अकूत संपति लूटकर महारानी को भेंट करते रहे। दमन के विरुद्ध विगुल तो सन् 1857 में ही फूंक दिया गया था, उस आग में देश जलता रहा, आग सुलगती रही। हम सफल 15 अगस्त 1947 को हुए। आजादी के लगभग 75 वर्ष बाद हम देखते हैं कि उस तरह से भारत नहीं टूटा, नहीं बिखरा, जिसकी कुत्सित भविष्यवाणी चर्चिल और अन्य अंग्रेज अफसर कर रहे थे। सच तो यह है कि तब से अब तक भारत हर क्षेत्र में आगे ही बढ़ा है, सामर्थवान और मजबूत हुआ है। तभी तो आज विश्व के प्रतिष्ठित और प्रभावशाली देशों में शुमार में होकर अलग मुकाम पर खड़ा है। आज हम खाने-पीने के मामले में आत्मनिर्भर हैं, दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था में हमारी गिनती होने लगी है, हम परमाणुशक्ति संपन्न देश हैं। हम मंगलयान भेजने वाले देशों में से एक हैं और अग्नि तथा चार मिसाइलों के साथ उपमहाद्वीप के आरपार मार करने की क्षमता रखते हैं। यानी, हमारे पास बहुत सारी उपलब्धियां हैं, जो चर्चिल की भविष्यवाणी को मुंह चिढ़ाती हैं और भारतीय एकता को बल देती हैं।
हमारे पूर्वज स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अंग्रेजों से मुक्ति का आंदोलन अदभुत तरीके से लड़ा। हमारे गरमदल के नेता अंग्रेजों से आमने—सामने लड़ने की बात करते थे। देश की जनता से अपील भी करते थे, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’ यह नारा सुभाष चंद्र बोस ने देशवासियों को दिया था। इस तरह सामने से लड़ने की बात और उन्हें देश से बाहर अंग्रेजों को भगाने की बात चंद्रशेखर, भगत सिंह सहित हजारों गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी करते थे, जिन्होंने हंसते—हंसते फांसी के फंदे पर झूलना ही आजादी के लिए अपना धर्म चुना। वहीं, नरमदल जिनकी अगुवाई महात्मा गांधी कर रहे थे, वह सुभाष चंद्र बोस को समझाते थे कि हम सामने से लड़कर अंग्रेजों से नहीं जीत सकते, क्योंकि उनके पीछे शक्तिशाली अमेरिका है। गांधीजी कहते थे कि हमारे पास न तो हथियार है, न प्रशिक्षित सैन्यबल हैं। पर, सुभाष चंद्र बोस कहां मानने वाले थे। उनपर तो किसी प्रकार देश को आजाद कराने का धुन सवार था। उन्होंने कई देशों से सहायता मांगी, फिर अपनी सेना आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। उनका कहना था कि 38 करोड़ भारतीय पर एक लाख अंग्रेज कैसे राज्य कर सकता है।
आजाद होने के बाद 17 साल तक नेहरू उस आजादी को बचाने के लिए काम करते रहे, जिसे हासिल करने के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी के  30 बेशकीमती युवा साल कुर्बान किए थे। इन 30 वर्षों में 10 साल उन्होंने जेल में बिताए थे। इसलिए उन्हें पता था कि यूनियन जैक उतारकर तिरंगा फहराना ही आजादी नहीं है। आजादी को पाना ही नहीं, उसे बचाना ज्यादा मुश्किल होता है, क्योंकि उसे हमेशा नई—नई चुनौतियां मिलती रहती हैं। नेहरू कहते थे कि आजादी के मायने यह नहीं कि हर आदमी आजादी के नाम पर बुरा काम करे। वह कहते थे, आप अपने खयालात का आजादी से इजहार कीजिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सड़क या अखबारों के माध्यम से हर एक को गालियां दीजिए। नेहरू को पूरी तरह मालूम था कि इतनी कुर्बानियों के बाद हासिल आजादी को असल चुनौती कहां से मिलने वाली है।

उनके मस्तिष्क में विंस्टन चर्चिल का वह कुख्यात बयान घूमता रहता था जिसमें चर्चिल ने कहा था कि अगर अंग्रेज भारत से चले गए, तो भारत के लोग इस देश को चला नहीं सकेंगे। यहां के जाहिल लोग आपस में लड़ मरेंगे और देश के सैकड़ों टुकड़े हो जाएंगे। इसलिए उन्हें पता था कि आजादी का सबसे बड़ा इम्तिहान एक बिखरे हुए देश को राजनैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से एक सूत्र में बांधना है।

समस्या हमेशा से थी, आज भी है और निश्चित रूप से आगे भी रहेगी। जिन विकट परिस्थितियों को पार करते हुए हमारा देश आज आजादी के 75वें वर्षों में कदमताल करते—करते आगे बढ़ रहा है, वह अद्भुत है। विशाल जनसंख्या वाला यह देश आगे बढ़ा है, आगे बढ़ रहा है, तो इसमें एक—एक नागरिक की भागीदारी और सरकार का निर्णय प्रेरणा देता है। फिलहाल अभी जो स्थिति देश की हो गई है, इससे ऐसा लगता है, मानो सरकार मनमानी पर उतर आई है। वह इसलिए, क्योंकि उस काल के कोई नहीं हैं जो यह बता सकें कि कितनी मेहनत और कुर्बानियों के बाद यह आजादी मिली है।

सच तो यह है कि आज देश विभिन्न समस्याओं से जूझ रहा है, जिसका समुचित जवाब भी संसद में नहीं दिया जाता है। उल्टे सवाल उठाने वाले सांसदों को ही निलंबित कर दिया जाता है। टेलीफोन टेप प्रकरण, यानी पेगासस जासूसी कांड, किसानों द्वारा लगभग आठ महीने से किए जा रहे धरना—प्रदर्शन, राफेल जांच प्रकरण पर इस पूरे संसदीय मानसून सत्र में कोई कार्य नहीं हो सका। ऐसा लगता है, कि भक्तों को हिंदू राष्ट्र की ऐसी अफ़ीम चटा दी गई है कि अब उन्हें गिरती हुई अर्थव्यवस्था, रिकॉर्ड तोड महंगाई और संविधान से कोई लेना—देना नहीं रह गया है। पता नहीं, अफ़ीम का यह नशा भक्तों के दिमाग से कब उतरेगा और वह सच्चाई से कब रूबरू हो सकेंगे। देर—सबेर नशा तो उतरता ही है, लेकिन तब तक शरीर का रक्त ठंडा हो चुका होता है और नुकसान भी हो चुका होता है । अभी आप सब आजादी का जश्न मनाईये और बंदे मातरम कहिए ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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