कृपया बाउजी की आत्मा को ठेस ना पहुंचाएँ: अशोक ध्यानचन्द
राजेंद्र सजवान
ध्यान चन्द भले ही विश्व हॉकी में जादूगर, चमत्कारी और श्रेष्ठ जैसे संबोधनों से जाने पहचाने गए, भले ही उनके सामने हिटलर का कद भी बौना हो गया लेकिन उनके अपने देश ने क्या दिया? उनके सुपुत्र अशोक कुमार और सैकड़ों हॉकी खिलाड़ियों और करोड़ों हॉकी प्रेमियों से पूछेंगे तो उनका जवाब होगा, “भारत की सरकारों ने अपने असली भारत रत्न को वह सम्मान नहीं दिया जिसके हकदार थे”। कुछ प्रशंसक और असंतुष्ट तो यह भी कहते हैं कि उनके नाम पर 29 अगस्त को बाँटे जाने वाले खेल पुरस्कारों का गठन भी महज़ मज़ाक लगता है। कई विश्व और ओलंपिक चैम्पियन हॉकी खिलाड़ी तो यह भी कहने लगे हैं कि जब दद्दा के जन्मदिवस पर सचिन खेल रत्न अवॉर्ड पाते हैं और फिर भारत रत्न बन जाते हैं तो ध्यान चन्द क्यों भारत रत्न नहीं बन पाए? कारण कोई भी हो लेकिन अशोक कहते हैं,’ अच्छा है बाउ जी यह दिन देखने के लिए जिंदा नहीं हैं’|
ध्यान चन्द 1924 से आज तक लगातार सुर्ख़ियों में रहे हैं। तब उनके करिश्माई खेल के चलते भारत ने पहली बार ओलंपिक स्वर्ण पदक जीता था। चार चार साल के अंतराल के बाद फिर ओलंपिक विजेता बने और मेजर की हॉकी जादूगरी का लोहा पूरी दुनिया ने माना। तब भारत अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था और भगत सिंह, चंद्र शेखर आज़ाद, सुभाष बोस जैसे क्रांतिकारियों के अलावा किसी और का नाम भारत वासियों की ज़ुबान पर था तो वह निसंदेह ध्यान चन्द का था। 1936 के बर्लिन ओलंपिक में जिस हिटलर ने महान अमेरिकी एथलीट जेसी ओवन्स से हाथ मिलने से इनकार कर दिया था, उसने भारतीय कप्तान और महान खिलाड़ी को हाथ बढ़ा कर अपनी फ़ौज़ में शामिल होने का निमंत्रण दिया था, जिसे ध्यान चन्द ने स्वीकार नहीं किया।
यह सच है कि भारतीय हॉकी का स्वर्णिम दौर बहुत पीछे छूट गया है| आठ बार के ओलंपिक चैम्पियन को अब हेय दृष्टि से देखा जाता है। क्रिकेट आज का सबसे लोकप्रिय भारतीय खेल बन गया है। लेकिन एक दौर वह भी था जब भारत और हॉकी खेलने वाले तमाम देशों में ध्यान चन्द महानायक थे। उनका नाम लेकर हॉकी की कस्में खाई जाती थीं। लेकिन तीन ओलंपिक स्वर्ण और सर्वकालीन श्रेष्ठ खिलाड़ी आँके जाने के बावजूद भी वह भारत रत्न के हकदार नहीं बन पाए। तारीफ की बात यह है कि सचिन को बिना माँगे ही सम्मान मिल गया लेकिन हॉकी के इतिहास पुरुष के लिए धरना, प्रदर्शन हुए, अनेकों बार राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से फरियाद की गई। आज भी खेल दिवस के अवसर पर यह माँग की जा रही है पर कोई सुनवाई नहीं। नतीजन, हार कर अशोक ध्यान चन्द यह कहने के लिए विवश हुए हैं,”आज बाउ जी होते तो खुद को ठगा गया महसूस करते|”
उनके जन्म दिवस और खेल दिवस को जोड़ते हुए अशोक कहते हैं कि जिस शख्स के नाम पर आप खेल दिवस माना रहे हैं उसे सरकारों ने दिया ही क्या है। खेल अवार्डों की बंदर बांट को लेकर भी वह बेहद नाराज़ हैं और कहते हैं कि बाउ जी के जन्मदिवस पर अवार्ड के नाम पर रेवडियाँ बाँटना उनकी आत्मा को चोट पहुँचाने जैसा है।
ओलंपियन अशोक कुमार की पहचान अपने पिता के नाम से नहीं है। वह आज़ादी बाद के महानतम ड्रिबलरों में शुमार किए जाते हैं| 1975 की विश्व विजेता भारतीय टीम के वह हीरो थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि पिता को भारत रत्न नहीं मिला तो बेटे को पद्म श्री भी नहीं मिल पाया। उनसे कहीं हल्के और जुगाडू खिलाड़ी तो पद्मभूषण भी पा चुके हैं|
अपने यशस्वी पिता के जन्मदिवस पर अशोक कुमार कहना चाहते हैं कि खेल अवार्डों का सम्मान गिरा कर ध्यान चन्द जी की आत्मा को ठेस ना पहुँचाएँ। वह एक सच्चे , अच्छे और महान देशभक्त खिलाड़ी और अनुशासित फ़ौज़ी रहे। यदि आप उन्हें भारत रत्न नहीं मानते तो कम से कम अवार्डों के नाम पर गंदी राजनीति भी ना करें| उनका मानना है की यदि देश को खेल महाशक्ति बनाना है तो अपनी महान हस्तियों का सम्मान करना सीखें और खेलों को राजनीति का अखाड़ा कदापि ना बनाएँ।
(राजेंद्र सजवान वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं. आप इनके लिखे लेख www.sajwansports.com पर भी पढ़ सकते हैं.)