चिंताजनक है रिपोर्ट, देश में 2030 तक गर्भ में ही मार दी जाएंगी 68 लाख बेटियां

सुभाष चन्द्र
यदि आपको यह कहा जाएग कि 2017 से 2030 के बीच भारत में 68 लाख कम लड़कियां पैदा होंगी, तो चैकिंएगा मत ! एक अनुमान के अनुसार भारत में पिछले दस वर्षों में क़रीब डेढ़ करोड़ लड़कियों को जन्म से पहले ही मार डाला गया या फिर पैदाइश के बाद 6 वर्षों के अंदर ही उनको मौत के मुँह में धकेल दिया गया। 1981 में लड़कियों की संख्या 1000 लड़कों के मुकाबले में 960 थी जो अब गिरकर 927 पर आ गई है। पंजाब और कुछ अन्य उत्तरी राज्यों में तो यह संख्या 780 तक गिर गई है।

ये बात हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि सऊदी अरब की किंग अब्दुल्ला यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी की एक स्टडी में ये आकलन किया गया है। इसके पीछे वजह बताई गई है कि अब भी लिंग जानने के बाद महिला के गर्भ में लड़की होने पर उनका अबॉर्शन करा दिया जाता है।

theguardian।com में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, रिसर्चर्स का कहना है कि 2017 से 2030 के बीच उत्तर प्रदेश में 20 लाख कम लड़कियां पैदा होंगी। यानी सबसे अधिक कमी भारत के इस राज्य में देखने को मिल सकती है। आबादी की फर्टिलिटी रेट और लोगों के बेटे या बेटी पाने की चाहत के आधार पर रिसर्चर्स ने भारत के 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का आकलन किया है।

भारत के उत्तर में स्थित 17 राज्यों में देखा गया कि बेटे की चाहत काफी अधिक है। ये स्टडी इसी हफ्ते च्सवे व्दम जर्नल में प्रकाशित की गई है। स्टडी में इस बात की भी वकालत की गई है कि लैंगिक बराबरी के लिए भारत को कड़ी नीति लागू करने की जरूरत है। भारत के उत्तर में स्थित 17 राज्यों में देखा गया कि बेटे की चाहत काफी अधिक है। ये स्टडी इसी हफ्ते च्सवे व्दम जर्नल में प्रकाशित की गई है। स्टडी में इस बात की भी वकालत की गई है कि लैंगिक बराबरी के लिए भारत को कड़ी नीति लागू करने की जरूरत है।

1994 में ही भारत में कानून बनाकर गर्भ में पल रहे बच्चे का लिंग जांच करना अवैध करार दिया गया था। हालांकि, अलग-अलग इलाकों में इस कानून को लागू करने में असमानताएं हैं। देश के ज्यादातर हिस्सों में लिंग अनुपात का खराब होना जारी है। फिलहाल भारत में प्रति एक हजार पुरुष पर 900 से 930 महिलाएं हैं।

एक नए अनुसंधान के मुताबिक भारत में पिछले 30 सालों में कम से कम 40 लाख बच्चियों की भ्रूण हत्या की गई है। अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘द लैन्सेट’ में छपे इस शोध में दावा किया गया है कि ये अनुमान ज़्यादा से ज़्यादा 1 करोड़ 20 लाख भी हो सकता है। सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के साथ किए गए इस शोध में वर्ष 1991 से 2011 तक के जनगणना आंकड़ों को नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के साथ जोड़कर ये निष्कर्ष निकाले गए हैं। शोध में ये पाया गया है कि जिन परिवारों में पहली सन्तान लड़की होती है उनमें से ज़्यादातर परिवार पैदा होने से पहले दूसरे बच्चे की लिंग जांच करवा लेते हैं और लड़की होने पर उसे मरवा देते हैं। लेकिन अगर पहली सन्तान बेटा है तो दूसरी सन्तान के लिंग अनुपात में गिरावट नहीं देखी गई।

बच्चियों की भ्रूण हत्या पर कई सालों से काम कर रहे शोधकर्ता साबू जॉर्ज के मुताबिक ये निष्कर्ष नए नहीं है और शिक्षित और समृद्ध परिवारों में ये चलन पिछले अनुसंधानों में भी सामने आए हैं। इन आंकड़ों को देखकर वो कहते हैं, “हमारे देश के अलग-अलग राज्यों को देखकर ये साफ हो जाता है कि पिछले दस सालों में शिक्षा की दर, संपत्ति, जाति या समुदाय किसी एक पैमाने पर नहीं, बल्कि सभी तरह के परिवारों में गर्भ में लिंग चुनाव करना आम हो गया है।”

भारत सरकार ने 17 साल पहले ही एक कानून पारित किया था जिसके मुताबिक पैदा होने से पहले बच्चे का लिंग मालुम करना गैरकानूनी है। कानून को लागू करने वाले ज़िला स्वास्थ्य अफसर के लिए लिंग जांच करने वाले डॉक्टर पर नकेल कसना बहुत मुश्किल है क्योंकि डॉक्टरों के पास नवीनतम तकनीक उपल्ब्ध है। उनके मुताबिक कानून को लागू करने के लिए राज्य स्तर पर मुख्यमंत्रियों को ये बीड़ा उठाना होगा और इसे प्राथमिकता देनी होगी, तभी अफसर हरकत में आएंगे और डॉक्टरों को पकड़ने के तरीके निकालेंगे।

भारत के सबसे समृध्द राज्यों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है। 2001 की जनगणना के अनुसार एक हजार बालकों पर बालिकाओं की संख्या पंजाब में 798, हरियाणा में 819 और गुजरात में 883 है। कुछ अन्य राज्यों ने इस प्रवृत्ति को गंभीरता से लिया और इसे रोकने के लिए अनेक कदम उठाए जैसे गुजरात में ‘डीकरी बचाओ अभियान’ चलाया जा रहा है। इसी प्रकार से अन्य राज्यों में भी योजनाएँ चलाई जा रही हैं। भारत में पिछले चार दशकों से सात साल से कम आयु के बच्चों के लिंग अनुपात में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष 1981 में एक हजार बालकों पर ९६२ बालिकाएँ थी। वर्ष 2001 में यह अनुपात घटकर 927 हो गया। यह इस बात का संकेत है कि हमारी आर्थिक समृध्दि और शिक्षा के बढते स्तर का इस समस्या पर कोई प्रभाव नहीं पड रहा है।

वर्तमान समय में इस समस्या को दूर करने के लिए सामाजिक जागरूकता बढाने के लिए साथ-साथ प्रसव से पूर्व तकनीकी जांच अधिनियम को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। जीवन बचाने वाली आधुनिक प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग रोकने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए।

देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने पिछले वर्ष महात्मा गांधी की 138वीं जयंती के मौके पर केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की बालिका बचाओ योजना (सेव द गर्ल चाइल्ड) को लांच किया था। राष्ट्रपति ने इस बात पर अफसोस जताया था कि लड़कियों को लड़कों के समान महत्व नहीं मिलता। लड़का-लड़की   में भेदभाव हमारे जीवनमूल्यों में आई खामियों को दर्शाता है। उन्नत कहलाने वाले राज्यों में ही नहीं बल्कि प्रगतिशील समाजों में भी लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है।

हैरत की बात तो ये है कि पिछले दो दशकों में एक करोड़ कन्या भ्रूण हत्याएं की जा चुकी हैं लेकिन अभी तक ‘द प्री-कन्सेप्शन एंड पी-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स (प्रोहिबिशन ऑफ सेक्स सेलेक्शन) एक्ट-1994’ के तहत एक भी व्यक्ति को सजा नहीं मिली है। इससे हमारी संघीय कानून व्यवस्था के पूरी तरह निष्प्रभावी होने का बोध होता है! साफ है कि 26 साल पहले कानून भी बन चुका है और अल्ट्रासोनोग्राफी तकनीक से एक करोड़ कन्या भ्रूण हत्याओं के षड्यंत्रकारी भी बेखौफ हैं। कई राज्यों में तो ऐसी भी सरकारी नीति घोषित है कि तीसरी संतान के रूप में भले कन्या भ्रूण कोख में पल रहा हो, उसको जन्म न देना नौकरी पेशा मां की मजबूरी बना दी गई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं.)

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