बहुत कुछ बदल दिया सोशल मीडिया ने साहित्य में

कुमकुम झा

आज लगभग बहुत सारे भाषाओं सोशल मीडिया का बोलबाला है।यहाँ यह बता दें कि मीडिया का सामान्य अभिप्राय समाचार पत्र पत्रिकाओं,टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट आदि से लिया जाता है लेकिन सोशल मीडिया आज का सबसे प्रभावशाली रूप है।

भाषा प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों के योगदान से हिंदी कंप्यूटिंग तकनीकी रूप से समृद्ध और आसान हुई है। हिंदी में कंप्यूटर के इस्तेमाल को लेकर जो लोग दक्ष नहीं थे, यूनीकोड के आ जाने से उनकी राह आसान हुई है। हिंदी सोशल मीडिया की व्याप्ति रोज बढ़ रही है। कुल मिला कर हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में सोशल मीडिया की धाक कायम हुई है।

हमारे सामाजिक,साहित्यिक और सांस्कृतिक जीवन में यह किसी क्रांति से कम नहीं है। सोशल मीडिया ने लोकतांत्रिक स्पेस की रचना की। देखते-देखते वह लोकतांत्रिक स्पेस लोकतांत्रिक शक्ति या हथियार बन गया। इसलिए अब किसी भी सामाजिक क्षेत्र में सोशल मीडिया की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह लोकतांत्रिक स्पेस या शक्ति एक सच्चाई है। इसका उपयोग कैसा हो रहा है, कौन लोग इसका उपयोग कर रहे हैं, यह दूसरा सवाल है।

याद रखना होगा कि इस माध्यम को हमें अपनाना ही होगा। बने रहना है तो इसकी भाषा सीखनी ही नहीं पड़ेगी, बल्कि उसमें दक्षता भी हासिल करनी होगी। इसलिए जाहिर है कि साहित्य भी इसकी अनदेखी नहीं कर सकता। सोशल मीडिया का आगमन जब हुआ या जब यह अस्तित्व में आया उस समय साहित्य में जो पीढ़ी काबिज थी, वह सोशल मीडिया के बारे में, उसकी सुविधाओं के बारे में न जानती थी और न ही जानने को उत्सुक थी। एक तरह की उदासीनता या उपेक्षा का भाव रहा। वह इससे बेपरवाह बनी रही। वह बेपरवाह बनी रह सकती थी, लेकिन साहित्य की दुनिया में जो नवप्रवेशी थे, जिन्हें अपने लिए जगह बनानी थी उन्हें यह माध्यम मिला और उन्होंने इसका उपयोग किया। हजारों-लाखों की संख्या में ब्लॉग बने। एक पूरी पीढ़ी ने इस पर अपने को अभिव्यक्त किया। एक ऐसी जमात सामने आई, जिसने इस माध्यम में अपने पाठक और श्रोता तलाश किए। अगर साहित्य स्वांत सुखाय है, तो वह सुख इस माध्यम ने एक बड़े वर्ग को दिया। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की को चुनौती मिली, उसी तरह साहित्यिक पत्रकारिता को भी चुनौती मिली। उसके एकाधिकार को धक्का लगा। गढ़ और मठ हिले। तो जहां स्थापित पीढ़ी सोशल मीडिया से बेपरवाह रही, वहीं संघर्षरत पीढ़ी ने इसे अपने लिए स्पेस के रूप में तलाश किया।

साहित्य के गढ और मठ कुलबुलाए। इस पूरे उपक्रम को नकारने की कोशिश की गई। भर्त्सना आदि भी हुई। उसे जब आभासी संसार कहा जाता है, तो कहीं न कहीं इसे क्षणभंगुर साहित्य भी कहा गया।

मेरी व्यक्तिगत राय है कि साहित्य में लोकतंत्र बन रहा है, नई तकनीक के जरिये। फेसबुक, ट्विटर पर लिखने वाले लेखक किसी खलीफा, किसी मठाधीश से पूछ कर, उससे सहमति स्वीकृति लेकर नहीं लिख रहे हैं। ये नए लेखक प्रयोग कर रहे हैं, ये साहित्य का लोकतंत्र है, जो बन रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि फेसबुक और ट्विटर पर जो लिखा जा रहा है, वह एक तरह से क्षणभंगुर हो रहा है। हम खानाबदोशों की तरह का लेखन कर रहे हैं। किसी एक विषय पर, ट्रेंड पर लोग टूट पड़ते हैं। फिर किसी और नए ट्रेंड की तरफ चले जाते हैं। नई तकनीक में ऐसा हो रहा है। नई तकनीक, नए मंचों को पहचान मिल रही है। विदेशों में इंटरनेट पर लिखे गए साहित्य के लिए अलग पुरस्कारों की व्यवस्था हो रही है। किताबों के बाहर के साहित्य के लिए जगह बन रही है।

साहित्य सृजन के लिए वर्तमान में जब सोशल मीडिया उपयुक्त माध्यम है, तब भी रचनाकारों का पुस्तकों की छपाई में रुचि लेना ठीक नही, है। पहले प्रकाशित पुस्तकें और अख़बारों में प्रकाशित रचनाएँ पाठक खोजती थीं और जोड़ती थीं जबकि आज के दौर में यही काम फेसबुक, व्हाट्सअप और ट्विटर के साथ ब्लाग और निजी वेब साइट कर रहे हैं। और होना भी यही चाहिए क्योंकि जब हमारे पास सस्ता और पर्यावरण के लाभ के साथ विकल्प मौजूद है तो हम क्यों पुराने तरीकों से पर्यावरण को हानि पहुँचाकर भी महँगे माध्यम की ओर जाएं।

पर्यावरण की दृष्टि से देखा जाएँ तो कागज का उपयोग, कई वृक्षों की कुर्बानी माँगता है, और यदि हम केवल समाचारपत्रों के डिजिटल संस्करण का उपयोग करना शुरू कर दे तो कई पेड़ों की कटाई को रोक कर पर्यावरण का होने वाला नुकसान बचा सकते हैं। केवल अख़बारों, पुस्तकों लिए अस्सी-नब्बे हज़ार वृक्ष रोजाना काट दिए जाते हैं। यदि हम वेब पर अपनी निजी वेबसाइट भी ब्लॉग जैसी या पुस्तक जैसी बनवाएं तो खर्च अमूमन पांच-छह हज़ार रुपये ही आता है जिस पर हम अपनी बहुत सारी किताबों के ई संस्करण भी प्रकाशित कर सकते हैं और पुस्तकों के पाठक के साथ-साथ लाखों विश्वस्तरीय पाठकों की पहुँच तक जाया जा सकता है। आज स्वीकृति पा चुके कवि कथाकार भी अपनी रचनाओं को सोशल मीडिया पर ला रहें हैं जाहिर है कि सोशल मीडिया के माध्यम से असंख्य पाठक मिलनें की संभावना बनी रहती है ।आज साहित्य की पहुँच उन लोगों तक भी हुई है जो लिखने पढ़ने से दूर रहते थे ।इस प्लेटफार्म ने कुछ लोगों में लेखन की छुपी प्रतिभा को ढूंढ निकाला है, तो एक बड़ा पाठक वर्ग भी तैयार किया है। आम लोगों में भी साहित्य के प्रति रूचि पुनः जागृत हुई है, इसे सोशल मीडिया की देन ही कहा जाना चाहिए ।
इसमें एक बात मैं और कहना चाहूँगी कि सोशल मीडिया ने एक ओर जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मज़बूती दी है वहीँ तुरंत लिखो,तुरंत छपाओ और तुरंत छा जाओ वाला माईंड सेट भी दिया है, कहने का मतलब अधैर्य का अंतहीन सिलसिला भी शुरू किया है प्रतिक्रिया और लाईक की आकांक्षा सामाजिक सांस्कृतिक उद्देश्यों पर भारी पर रही है।हमें सोशल मीडिया के सामर्थ्य और सीमा दोनों को समझना होगा जैसे बहुत सारी जानकारी भ्रामक भी होती है तो ऐसे में सरकार की तरफ से कुछ साफ्ट रेगुलेशन भी होना चाहिए ।
यही कहा जा सकता है कि साहित्य में सोशल मीडिया आज एक ज़रूरत बन चुका है ।समाज में साथ रहना है तो उसकी गति के अनुसार ही चलना होगा ।आज सोशल मीडिया हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है इसके बगैर रह पाना मुश्किल होता है ।लेखकों को कनेक्ट, क्रियेटिविटी और कनेक्टिविटी इन तीन चीजों से जुड़ना जरूरी है इसलिए हम कह सकते हैं कि साहित्य के संरक्षण के लिए सोशल मीडिया प्राण वायु के समान है।

(लेखिका शिक्षिका और समाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र से जुडी हैं।)

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