लड़ते जूझते उड़ गया ‘उड़न सिख’; ओलंपिक पदक नहीं जीता, फिर भी चैंपियन कहलाया

राजेंद्र सजवान

मिल्खा सिंह ने कोविड 19 के विरुद्ध जम कर लड़ाई लड़ी लेकिन वह अपना जीवन नहीं बचा सके।उनकी यह लड़ाई कुछ कुछ ऐसी ही थी जैसी उन्होंने 1960 के रोम ओलंपिक में 400 के फाइनल में लड़ी। भले ही वह पदक नहीं जीत पाए पर अपने इस अभूतपूर्व प्रदर्शन से वह उड़न सिख कहलाए और अपने इस टाइटल को साकार करते हुए ही दुनिया से विदा हुए।

मिल्खा परिवार सही मायने में देश के एक चैंपियन परिवार के रूप में जाना गया। उनकी धर्म पत्नी निर्मल मिल्खा सिंह, जिनका देहांत 13 जून को कोरोना के कारण हुआ भारतीय वॉलीबाल टीम की कप्तान थीं और पुत्र जीव मिल्खा सिंह विश्व स्तर पर चैंपियन गोल्फ खिलाड़ी के रूप में प्रसिद्ध हुए।

91 वर्षीय उड़न सिख का जाना भारतीय एथलेटिक इतिहास के सबसे चमकदार अध्याय का मिट जाना है। लेकिन उनका प्रदर्शन हमेशा भविष्य के एथलीटों को चुनौती देता रहेगा। यह देश का दुर्भाग्य है कि वह जीते जी किसी ओलंपिक पदक विजेता एथलीट को नहीं देख पाए, जिसका उन्हें आखिर तक इंतजार रहा।

ओलंपिक खेलों में चौथा स्थान पाने वाले खिलाड़ी और भी कई हैं लेकिन मिल्खा सिंह का नाम इसलिए बेहद आदर और अदब के साथ लिया जाता है क्योंकि वह आज़ाद भारत के ऐसे पहले एथलीट थे जिसने बिना किसी साधन सुविधा और उच्च स्तरीय ट्रेनिंग लिए 1960 के रोम ओलंपिक में दुनिया के चैंपियन धावकों का डट कर मुकाबला किया।

लेकिन 400 मीटर की दौड़ में अपनी एक चूक के चलते पदक गंवा बैठे। यदि वह पीछे मुड़कर नहीं देखते तो शायद भारत ओलंपिक में व्यक्तिगत खेलों का पहला पदक साठ साल पहले जीत चुका होता।

उनके समय में न तो अच्छे कोच थे और न ही सरकारें आज की तरह पैसा बहाती थीं। यही कारण है कि उनके और पीटी उषा के चौथे स्थान के प्रदर्शन को भी चैंपियनों जैसा आंका जाता रहा है।

उड़न सिख का कद इतना बड़ा था कि खेल मंत्रालय, एथलेटिक फेडरेशन और देश केकिसी भी बड़े खेल संस्थान ने हमेशा उनकी राय को सम्मान दिया। कभी कभार विवादास्पद रहे पर एथलेटिक के सुधार के लिए आखिरी सांस तक लड़ते रहे।

1958 के एशियाई खेलों में 200 और चार सौ मीटर के स्वर्ण, चार साल बाद एक और स्वर्ण और 1958 के कामनवेल्थ खेलों का स्वर्ण पदक उनकी महान उपलब्धियां रहीं। इस प्रदर्शन के चलते उन्हें दुनियाभर में जाना पहचाना गया।

एथलेटिक फेडरेशन ने उनका 36 का आंकड़ा रहा लेकिन उनका बड़पन था कि उन्होने हमेशा शांति और विनम्रता के साथ पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए। 200 और 400 मीटर दौड़ के इस महारथी के रिकार्ड वर्षों तक चुनौती बने रहे।

ख़ासकर, 400 मीटर का उनका रिकार्ड जब वर्षों तक नहीं टूटा तो उन्होने एलान किया कि रिकार्ड तोड़ने वाले को दो लाख रुपये देंगे। परमजीत सिंह ने दो बार उनके रोम ओलंपिक के प्रदर्शन को बेहतर किया लेकिन मिल्खा सिंह ने इस रिकार्ड को कतई मान्यता नहीं दी क्योंकि उनका देखने का नजरिया हट कर था।

दिल्ली गोल्फ क्लब में आयोजित एक कार्यक्र्म के चलते वह एथलेटिक फ़ेडेरेशन को बुरा भला कह रहे थे। उन्होंने कहा कि फेडरेशन सही काम नहीं कर रही। देश में एक भी स्तरीय एथलीट नहीं है तो एक पत्रकार ने पूछ लिया,’आपने अपने बेटे जीव को एथलीट क्यों नहीं बनाया?’ लगा की शायद वह बुरा मान जाएँगे।

लेकिन उन्होने कहा, “मैं चाह रहा था कि उसे एथलीट बनाऊं लेकिन जीव में मुझे वह पोटेंशियल नज़र नहीं आई | आज मैं अपने फ़ैसले पर खुश हूँ वह गोल्फ में अच्छा कर रहा है। बेशक, जीव मिल्खा देश और दुनिया के श्रेष्ठ गोल्फरों में शुमार हैं और उन्होने अपने यशस्वी पिता का नाम रोशन किया है।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.)

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