नाराजगी भी है, मजबूरी भी
पंकज चौधरी
पटना के एक साथी पत्रकार से बात हो रही थी। मुद्दा था कि, नीतीश कुमार आजकल क्या दुखी हैं, गुस्से में हैं या फिर नाराज चल रहे हैं। तो साथी पत्रकार ने कहा कि पता नहीं कि वो गुस्से में हैं या नाराज हैं …. लेकिन एक बात जरूर है कि वो आजकल काफी बोल रहे हैं। एक छुटभैया पत्रकार भी नजर आ जाए तो बोलने लग पड़ते हैं। पिछले हफ्ते तो एक दिन में चार बार बोल गए। अमूमन नीतीश कुमार से ऐसी उम्मीद नहीं होती है। वो बहुत कम बोलते हैं। मन की बात मन में ही रखते हैं। क्या करेंगे इसका भी अंदाज किसी को नहीं होता है। जाहिर है सवाल उठना कि आखिर आजकल वो क्यूँ इतना बोल रहे हैं ? तो साथी पत्रकार का जवाब था कि ये महज दबाव की राजनीति (प्रेसर पालिटिक्स) है। एक तरह का पोलिटिकल पोस्चररिंग (राजनीतिक मुद्रा) है। भाजपा को वो दबाव में रखना चाहते हैं।
लेकिन क्या ये प्रेसर पालिटिक्स काम कर रहा है? तो उनका जवाब था कि बिल्कुल ही नहीं। और वाकई इतना बोलने पर भी भाजपा कैम्प से अभी तक कोई जवाबी प्रतिक्रिया नहीं आ रही।
सूत्र के मुताबिक भाजपा के सभी प्रवक्ता को ये आदेश दिए गए हैं कि वो नीतीश कुमार के किसी भी बयान पर या गठबंधन राजनीति पर प्रतिक्रिया नहीं देंगे। इसकी वजह ये है कि भाजपा जान रही है कि नीतीश कुमार फिलवक्त कुछ भी नहीं कर सकते। उनको डम्मी मुख्यमंत्री की हैसियत मंजूर होगी लेकिन वो किसी भी सूरत में चीफ मिनीस्टर पद से त्याग पत्र नहीं दे सकते।
सत्ता की गलियारों में पहुँच रखने वाले लोगों का कहना है कि पिछले दौर के मुख्यमंत्रित्व काल के मुकाबले इस बार नीतीश कुमार काफी कमजोर सीएम दिख रहे हैं। पहले सिवाय सुशील मोदी के भाजपा का कोई भी मंत्री नीतीश कुमार के सामने कुछ बोलने से भी कतराते थे। उनके किसी भी फैसले पर कोई सवाल भाजपा कैम्प से नहीं उठता था। लेकिन आज माहौल बदल गया है। भाजपा के दो उप-मुख्यमंत्री भी नीतीश कुमार को बिल्कुल ही भाव नहीं देते। सूरतेहाल ये है कि अब किसी ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए भी अब जदयु के मुख्यमंत्री को भाजपा से इजाजत लेनी पड़ती है।
तो आज की तारीख में क्या नीतीश कुमार के पास किसी तरह का विकल्प है? इसका संक्षिप्त सा जवाब है –“नहीं “। अगर इस्तीफा नहीं दे सकते तो क्या राज्य में एक नई राजनीतिक समीकरण की संभावना को तलाशा जा सकता है? तो शायद वो भी संभव नहीं है। क्योंकि अगर वो राजद नेतृत्व वाली महागठबंधन से हाथ मिलाते हैं तो एक ही क्षण में उनकी सारी राजनीतिक जमा-पूँजी मटियामेट हो जाएगी। आने वाले दिनों में उन्हें बतौर एक ऐसे मुख्यमंत्री याद किया जाएगा जो सिर्फ कुर्सी से चिपका रहना ही जानता है। सत्ता के लिए कभी भी किसी से भी हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करते। ऐसे में जो नीतीश कुमार अपनी छवि को लेकर बेहद सचेत रहते हैं, क्या इस तरह के कदम अभी निकट भविष्य में उठा सकते हैं? क्या वो अपने उपर “ पलटू राम “ का ठप्पा हमेशा के लिए चस्पा कर देंगे?
भाजपा को नीतीश की इस मजबूरी का एहसास है। वो जानते हैं कि नीतीश अब पूरी तरह भाजपा की गिरफ्त में हैं – वो कहीं जा सकने की स्थिति में नहीं है। लेकिन साथ ही ये भी बात है कि राजद के साथ हाथ मिलाने के मुद्दे पर जदयु में भी इस समय दो खेमा है। एक तरफ जदयु का बुजुर्ग लाबी नहीं चाह रहा कि राजद के साथ हाथ मिलाया जाए, वहीं दूसरी तरफ युवा नेतृत्व राजद के साथ एक नई सरकार बनाने के लिए काफी उत्सुक है। पिछले दिनों हुए कार्यकारिणी की बैठक में हारे हुए जदयु नेताओं ने साफ तौर पर ये कहा कि उनकी हार भाजपा की वजह से हुई न कि लोजपा की वजह से। बीजेपी पर हमलावरों में ललन पासवान, अरूण मांझी, चंद्रिका राय, बोगो सिंह, आसमां परवीन, जय कुमार सिंह जैसे युवा नेता शामिल थे। सूत्र का कहना है कि ये युवा नेता जल्द से जल्द भाजपा को पाठ पढ़ाना चाहते हैं। और इसके लिए वो राजद से हाथ मिलाने के लिए आतुर भी हैं।
इसके विपरीत जदयु का बुजुर्ग लाबी को ये बात रास नहीं आ रही कि वो राजद के साथ हाथ मिलाएं। सूत्रों के मुताबिक, इन नेताओं को ये बात नागवार गुजर रही है कि कैसे वो युवा मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के सामने प्रोटोकाल के तहत नतमस्तक होंगे। जबकि युवा वर्ग को तेजस्वी यादव के साथ किसी तरह की परेशानी नज़र नहीं आ रही। लेकिन फिलहाल , सूत्र के मुताबिक , राजद और जदयु के बीच किसी तरह की गलबहियाँ अभी निकट भविष्य में संभव नहीं है।
यानि कुल मिलाकर – न तो नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देंगे और न ही राज्य में किसी तरह के सियासी उलटफेर को अंजाम देने की स्थिति में हैं। तो फिर बार बार अपने दर्द को वो क्यूँ बयां कर रहे हैं। क्यूँ कह रहे हैं कि चुनाव के दौरान कौन दुश्मन था और कौन दोस्त – इसकी पहचान वो नहीं कर सके। भाजपा तो उनका घोषित दोस्त था — तो क्या इस घोषित दोस्त को वो आहिस्ते आहिस्ते दुश्मनों की पंक्ति में खड़ा कर रहे हैं।
राज्य के सियासत पर पैनी नज़र रखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय का कहना है कि नीतीश कुमार को ये आभास हो चुका है कि कैबिनेट विस्तार में उनकी एक न चलेगी। संभव हो कि जदयु खेमे को ऐसे विभाग थमा दिए जाएं जिनका कि कोई महत्व ही नहीं हो। साथ ही संख्या बल के आधार पर भी जदयु ताकतवर नहीं रहने वाली। निस्संदेह, कैबिनेट में भाजपा के मंत्रियों की संख्या जदयु के मंत्रियों से काफी अधिक होगी। इसलिए वो इस तरह के राग अलाप कर भाजपा खेमें पर अपना दबाव बनाए रखना चाहते हैं।
इसके अलावे अभी विधान परिषद् के लिए राज्यपाल कोटे से 12 सदस्यों का मनोनयन होना है। सिद्धांततः, जदयु और भाजपा दोनों को छः – छः सीट मिलनी चाहिए। लेकिन बदले हुए माहौल में मजबूत भाजपा सिर्फ चार सीट ही कमजोर जदयु को देना चाह रही है। इस बार के चुनाव में नीतीश कुमार के कई करीबी चुनाव हार गए। ये हारे हुए नेता खुले आम भाजपा को इस पराजय के लिए जिम्मेदार मान रहे हैं । इन तमाम करीबियों को भी कहीं न कहीं एडजस्ट करना है। इस लिए नीतीश कुमार रह रह कर अपनी पीड़ा और गुस्से का इजहार कर रहे हैं।
बहरहाल, कह सकते हैं कि जदयु अभी विवशता और नाराजगी के दलदल में फंसी हुई है। वो उपना बाल नोच सकती है …. माथे को पटक सकती है ….लेकिन उससे बाहर निकल कर आने की हिम्मत जुटा नहीं सकती। लेकिन कहा जाता है कि राजनीति में न तो कोई पक्का दोस्त होता है और न दुश्मन। खास तौर पर बिहार की राजनीति में तो लोगों ने देखा है कि किस तरह एक कट्टर दुश्मन भी दोस्त बन जाता है और एक जिगरी दोस्त पलक झपकते ही दुश्मन बन जाता है। इसलिए, इंतजार करना होगा …. नीतीश कुमार के धैर्य का। वो कब तक इस तरह का अपमान बर्दाश्त करते रहेंगे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।