हिंदुस्तानी सलाम का नायाब तरीक़ा!

आमिर रिज़वी

कोरोना में दुनिया में बहुत कुछ बदल दिया है। दुनिया अब वैसी नहीं रहेगी, जैसी पहले थी। पर कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो बेशक पुरानी हैं पर कोरोना के दौरान और मुमकिन है कि बाद की दुनिया में भी उसकी क़ीमत बरक़रार रहेगी और उनमें से एक है अभिवादन का हिंदुस्तानी तरीक़ा। एक तरीक़ा तो हाथ जोड़कर नमस्ते करने का ही है। पर, हिंदुस्तान में अभिवादन का मुसलमानों का जो तरीक़ा प्रचलित है वह भी अलहदा ही है।

हिंदुस्तानी मुसलमानों जैसा सलाम या सैल्युटेशन का तरीक़ा इतना अनूठा है जो शायद ही पूरी दुनिया में, ख़ासतौर पर किसी इस्लामिक देशों में प्रचलित हो। हिंदुस्तान के मुसलमान जिस तरह से कमर ख़म (झुकाकर) करके सर झुकाते हैं और हाथों को झुके हुए सर तक ले जाते हैं। यानी किसी के आगे अदब से सर झुकाकर अभिवादन करते हैं वह लासानी (अद्वितीय ) है।

हिंदुस्तानी मुसलमानों के इस अभिवादन के इस तौर को अगर संकीर्ण नज़रिए के चश्मे से देखें तो शायद कुछ कठमुल्ले या दीन के ठेकेदार इसे शिर्क तक कह दें, क्योंकि इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी के आगे सर झुकाना एक तरह से शिर्क होता है। लेकिन हम भारतीय मुसलमान यहां अदब और एहतराम में किसी के आगे इस तरह सर झुकाते हैं न कि उसे पूजने या परस्तिश के इरादे से ऐसा करते हैं।

यूं तो 712 ईस्वी से ही मुसलमानो का भारत में आगमन प्रारम्भ हो गया था पर 1526 में जब देश में मुग़लिया शासन की शुरुआत हुई तो इस कालखंड में ऐसे सामाजिक प्रयोग हुए जिन्होंने भारत की तहज़ीब से जुड़कर एक अनोखे समाज की नींव रखी।

चूंकि, भारत पहले से ही विभिन्न धर्मों, विचारधाराओं, मान्यताओं, आस्थाओं और सामाजिक पद्धतियों का देश था इसलिए इस्लामी तहजीब को यहां रचने-बसने और घुलने-मिलने में अधिक विरोध का सामना नहीं करना पड़ा।

हिंदुस्तानी तहज़ीब की खासियत ही थी कि जब देश में इस्लाम आया तो कश्मीर के पंडितों ने अपने परिवार से एक-एक व्यक्ति को इस्लाम अपनाने को कहा ताकि इस नए धर्म की विवेचना और ज्ञान प्राप्त किया जा सके। इसकी मिसाल उर्दू के मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल हैं जो कश्मीरी पंडित थे। अपने एक शेर में कहते हैं-

सच कह दूँ ए बरहमन गर तू बुरा न माने

तेरे सनमक़दों के बुत हो गए पुराने

या

मैं जो सर बा सजदा जुआ कभी तो ज़मीन से आने लगी सदा

तेरा दिल तो है सनम आशना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में

इस तरह भारतीय सभ्यता की सहिष्णुता जब इस्लाम से मिली तो इसने मुल्लाओं की कट्टरता और रूढ़िवादी विचारधारा को परास्त कर दिया। भारत में पनपने वाला इस्लाम, अरब के इस्लाम से बहुत भिन्न हो गया और यहाँ के समाज में नई-नई व्यवस्थाएँ जन्म लेने लगीं। इन्हीं व्यवस्थाओं में अभिवादन या सैलुटेशन का भी नया तरीक़ा पैदा हो गया और ‘आदाब’, ‘तस्लीम’, ‘बंदगी’ जैसे शब्द अभिवादन के लिए इस्तेमाल किए जाने लगे। अभिवादन की यह शब्दावली शुद्ध रूप से भारतीय अरब और ईरानी सभ्यताओं के समावेश का नतीजा हैं।

मुग़ल दरबार में ‘कोर्निश या फर्शी सलाम’ की प्रथा शुरू हुई, जिसमें अभिवादन करने वाला व्यक्ति कमर से आगे की तरफ नब्बे डिग्री तक झुककर हाथों को पेंडुलम की तरह हिलाकर माथे तक लाता था और ‘बंदगी या तस्लीम’ शब्द बोलता था।  बंदगी या तस्लीम का यदि हिंदी में अनुवाद किया जाए तो इसका अर्थ भक्ति और समर्पण है। यदि कट्टर इस्लामी विचारधारा के नज़रिए से देखा जाए तो ये शब्द सिवाए ईश्वर या अल्लाह के लिए ही इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन भारत में जन्मी इस समावेशी विचारधारा ने उस समय के कट्टर मुल्लाओं को हाकिम होने के बावजूद इन रिवाजों मानने के लिए बाध्य कर दिया।

मुग़लों के पतन के बाद बड़े साहित्यिक और सामाजिक का दौर अवध में आया।  यहाँ के नवाबों और शासकों ने एक नई तहज़ीब की बुनियाद डाली जो धार्मिक भिन्नता को समेटकर बनी ऐसा गुलदस्ता थी जिसका हर रंग दिलकश दिखाई देता था।

लखनवी आदाब

जहां तक लखनवी आदाब का ताल्लुक़ है यह सेकुलर कोड ऑफ सैलुटेशन है। इसका आगाज़ अवध के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह ने किया था। उस ज़माने में पहले अगर आप एक मुसलमान हैं तो अगर आपने अस्सलामुन अलैकुम कहा तो जवाब मिलेगा वालैकुम अस्सलाम। अगर किसी ने कहा, नमस्कार, जय सिया राम या राधे-राधे, ये सब भी मोड ऑफ सैलुटेशन है लेकिन इससे मालूम होता है  कि फलां शख़्स एक ख़ास मज़हब से जुड़ा हुआ है। नवाब वाजिद अली शाह ने इंसान को मआशरे या सोसाइटी में मज़हब से जुदा किया और अदब से जोड़ा।

अदब यानी सम्मान और आदाब, अदब का मजमुआं है और यूनेस्को ने इसे कोड ऑफ सैलुटेशन को इतना पसंद किया कि इसे ‘वर्ल्ड हैरिटेज स्टेटस अंडर इन टैंजिबेल हैरिटेज’ देने की पेशकश की। इसके अलावा नवाब वाजिद अली शाह ने एक और सेक्युलर कॉमन कोड आफ ड्रेस दिया, क्योंकि पहले सर पर पहने जाने वाले पगड़ी या साफे या ताज से इंसान की शिनाख़्त होती थी कि वह किस ख़ानदान, प्रांत, इलाक़े या कबीले से हैं। उन्होंने अंग-रखा जिसे आजकल लोग अंगरखा कहते हैं और एक खास तरह की टोपी जिसे ‘दो-पल्ली’ कहते हैं का ईजाद भी किया। यह भी एक सेक्युलर कॉमन कोड ऑफ ड्रेस माना जाता है। इससे पता नहीं चलता था कि एक इंसान किस मज़हब-मिल्लत से है इसके बाद ख़ासतौर से ये आदाब पूरी दुनिया में प्रचलित या कायम हुआ।

आदाब करने का भी ख़ास तरीका है। इसमें आपके दोनों पैर मिले नहीं होते हैं और की दोनों एड़ियां 45 डिग्री पर होती है। आपकी कोहनी जिस्म से नज़दीक होती है और 45 डिग्री पर होती है। आप की टुड्डी और बीच की अंगुली में फासला कम हो जाता है। यह खूबसूरती हिंदुस्तानी मुसलमानों के अलावा कहीं और देखने को नहीं मिलेगी।

(आमिर रिज़वी वरिष्ठ पत्रकार और इस्लामिक स्कॉलर हैं. लेख में व्यक्त किये गए विचार से चिरौरी न्यूज़ का सहमत होना अनिवार्य नहीं है. ) 

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