क्यों क्रिकेट पत्रकारिता बन कर रह गई है खेल पत्रकारिता?

राजेंद्र सजवान

किसी जीत से कम भी नहीं यह ऐतिहासिक ड्रा, इस शीर्षक के साथ देश के एक लीडिंग हिंदी अखबार में छपी खबर में भारतीय खिलाड़ियों की जमकर तारीफ की गई,जिसके वे हकदार भी बनते हैं। सिडनी में खेले गए तीसरे टेस्ट मैच में भारतीय टीम के हौंसले और संयम की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। हालांकि क्रिकेट जैसे खेल में कभी भी कुछ भी हो सकता है, मसलन 36 पर आउट होने वाली टीम ऐसा करिश्मा भी कर सकती है।

वाकई, क्रिकेट बड़ा गजब खेल है। भले इस खेल को दुनिया के दस देश ही खेलते हैं लेकिन चूंकि ऑस्ट्रेलिया, इंगलैंड और न्यूज़ीलैंड जैसे देश इस खेल में शामिल हैं इसलिए क्रिकेट की हस्ती बरकरार है और भारतीय महाद्वीप में तो पागलपन की हद तक पसंद किया जाता है।

अक्सर पूछा जाता है कि भारतीय महाद्वीप के देश-भारत , पाकिस्तान, श्रीलंका, बांगलादेश, अफ़ग़ानिस्तान में क्रिकेट का पागलपन सिर चढ़ कर क्यों बोलता है? क्यों भारत में क्रिकेट एक धर्म का रूप ले चुका है और क्यों अन्य भारतीय खेल क्रिकेट से चिढ़ते हैं और खौफ खाते हैं? इन सभी सवालों का जवाब यह है कि दक्षिण एशिया के तमाम देश ओलम्पिक खेलों में फिसड्डी हैं और क्रिकेट उनकी मजबूरी बन गया है। अर्थात गम गलत करने के लिए ख्याल अच्छा है!

इन सवालों का जवाब कुछ और भी हो सकता है लेकिन इतना तय है कि क्रिकेट को सिर चढ़ाने का काम मीडिया करता आया है। क्रिकेट की हार जीत पर पागलपन दिखाने और मातम मनाने का काम बिकाऊ मीडिया के जिम्मे है। बेशक, क्रिकेट विश्व कप, एशिया कप या कोई भी सीरीज जीतने पर पूरा देश जश्न मनाता है। लेकिन अन्य खेलों की जीत पर ऐसे जश्न देखने को क्यों नहीं मिलते? साफ है भारत में समाचार पत्र, टीवी चैनल , पत्र पत्रिकाएं और तमाम प्रचार माध्यम क्रिकेट के आगे नतमष्तक हैं, उसके गुलाम हैं। वरना क्या कारण है कि एक ड्रा पर तमाम टीवी चैनलों ने क्रिकेट राग गाना शुरू कर दिया? क्यों तमाम अखबारों के खेल पेज क्रिकेटमय हो गए? एक शीर्ष अंग्रेजी दैनिक में दो पेज सिर्फ क्रिकेट को समर्पित किए गए। बाकी खेलों के लिए एक शब्द तक कि जगह नहीं बची। लेकिन यह सिर्फ एक-दो बड़े अखबारों का क्रिकेट पागलपन नहीं है। तमाम भारतीय समाचार पत्र इसी परिपाटी पर चल रहे हैं।

लेकिन जो पाठक पत्रकारों को दोष दे रहे हैं, गलत कर रहे हैं। दरअसल, समस्या की जड़ खेल पत्रकार कदापि नहीं हैं। उन्हें तो ऊपर वालों के आदेश का पालन करना पड़ता है। पिछले कुछ सालों में खेल पत्रकारिता के मूल्यों में भारी बदलाव आया है। अखबारों की तरह टीवी चैनल भी क्रिकेट के आगे इसलिए मजबूर हैं क्योंकि क्रिकेट उनकी कमाई का जरिया बन चुका है। एक चैनल ने तो बाकायदा ‘खेल अब तक’, ‘क्रिकेट कब तक’ जैसे कार्यक्रम शुरू कर डाले थे, जोकि बेहद घटिया प्रयोग कहा जा सकता है।

अब एक बार फिर असल मुद्दे पर चलते हैं। एक ड्रा मैच को विश्व कप जीत जैसा सम्मान इसलिए मिल रहा है क्योंकि देश के ज्यादातर अखबारों को ऐसे लोग चला रहे हैं, जिनका मकसद सिर्फ पैसा कमाना है और उनके लिए क्रिकेट कमाऊ पूत की तरह है। अखबारों के मालिक और संपादक खेल पत्रकारों को चाबुक की फटकार पर नचा भगा रहे हैं। ‘क्रिकेट की कोई खबर छूटनी नहीं चाहिए और बाकी खेलों की खबर लगनी नहीं चाहिए’, अखबार इस ढर्रे पर चल रहे हैं। वैसे भी देखा जाए तो भारत में ओलम्पिक खेलों की कोई हैसियत नहीं है। क्रिकेट कोरोना काल में भी दिख रहा है इसलिए बिक रहा है और बाकी खेल मुंह छिपाए फिर रहे हैं।

भले ही बहुत से खेल पत्रकार मित्र अलग राय रखते हों लेकिन उनमें से ज्यादातर ऐसे हैं जिन्होंने कभी कोई खेल नहीं खेला। हां, क्रिकेटर होने का दम हर कोई भरता है, भले ही बैट पकड़ना ना आता हो। ऐसे लोगों के कारण ही खेल पत्रकारिता अब सिर्फ क्रिकेट पत्रकारिता बन कर रह गई है।

लेकिन दोष क्रिकेट का नहीं है। सरकार, खेल मंत्रालय और तमाम खेल संघ भारतीय और ओलम्पिक खेलों को बर्बाद करने पर तुले हैं। वरना क्या कारण है कि देश की राजधानी के तमाम अखबारों ने लोकल और राष्ट्रीय खेलों को छापने पर पाबंदी लगा रखी है। हां, क्रिकेट की झूठी सच्ची खबरें खूब छपती हैं।

यह न भूलें कि खेल पत्रकारों की शीर्ष संस्था SJFI को भी क्रिकेट से खास लगाव है। उसके वार्षिक कार्यक्रम में सिर्फ क्रिकेट को ही एक पूर्ण खेल का दर्जा प्राप्त है। ज़ाहिर है बाकी खेलों का भला नहीं होने वाला।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.)

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