थोथा चना, बाजे घना


निशिकांत ठाकुर

प्रिंट मीडिया में मैंने अपने जीवन का लंबा अरसा गुजारा है और इस दुनिया में मनवांछित सफलता भी हासिल की। मैं अखबार में हुईं गलतियों को हमेशा अक्षम्य अपराध मानता रहा, क्योंकि सच यह है कि उसमें छपा एक-एक शब्द किसी भी विवाद के लिए कानूनी आधार होता है। इसलिए सभी पत्रकारों को यही निर्देश देता था कि बिना साक्ष्य के कोई भी समाचार प्रकाशित न किया जाए जिससे हम कानूनी रूप से कमजोर पड़ जाएं और अखबार की गरिमा को ठेस पहुंचे। इतने लंबे समय तक प्रिंट मीडिया से जुड़े रहने के कारण आज भी प्रयास रहता है कि न झूठ बोलूंगा, न झूठ लिखूंगा। प्रयास कहना तो गलत होगा, निश्चय कर लिया है कि किसी भी हाल में गलत नहीं लिखूंगा, क्योंकि लिखने वाला तो एक शब्द या एक लाइन लिख देता है, लेकिन जिसके लिए लिखता है उस पर उसका कितना गंभीर असर होता है और समाज पर उसका कैसा और कितना प्रभाव पड़ता है, इसे बाहर से ही समझा जा सकता है। इसी साख पर इतने बड़े अखबार समूह में नेतृत्व देता रहा और अपने लिखने का अभ्यास बरकरार रहे, इसलिए सप्ताह में लिखता भी रहता था। लेकिन, सभी राजनीतिक दल के छोटे-बड़े सभी सदस्य, सरकारी अधिकारी खूब अपनापन और इज्जत देते थे। इसलिए कभी किसी राजनीतिक दल से जुड़ा नहीं, लेकिन हां एकबार जुड़ा जरूर था (लेकिन कांग्रेस में नहीं), पर मेरे परिवार के कई सदस्य राजनीतिक दल से अवश्य जुड़े रहे और 1975 में जब आपातकाल लागू हुआ तो उन्हें 27 जून को मीसा कानून के तहत गिरफ्तार भी किया गया था। वे 19 महीने जेल में रहे और आपातकाल खत्म होने के बाद ही छोड़े गए। चूंकि पहले भी वह लोकसभा के सदस्य थे, इसलिए फिर दुबारा भीचुने गए। चूंकि वह जेपी आंदोलन के सक्रिय सदस्य थे, इसलिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने उन्हें राज्यसभा में भेजा। यह कोई स्पष्टीकरण नहीं, बल्कि पिछले लेख में उल्लखित बातों को साफ कर रहा हूं। मेरा परिवार राजनैतिक परिवेश (कांग्रेस का नहीं) का रहा है, लेकिन मेरा जीवनकाल पत्रकारिता को समर्पित रहा है। मैंने देखा है कि आपातकाल में जेपी आंदोलन के जो सक्रिय सदस्य थे वह तो जेल चले गए, लेकिन पुलिस डर से कहिए अथवा पुलिस को चकमा देकर जो बाहर रहे, वह बाद में अपनी बहादुरी के ताल ठोक-ठोक कर अपनी अपनी डींगे हांकते थे और जनता से अपनी बहादुरी के अलाप-प्रलाप करते नहीं अघाते थे।
अपने देश की जनता बहुत ही निर्मल मन की है। उसका छल-प्रपंच से कुछ भी लेना-देना नहीं। जो भी सरकार आजादी के बाद से अब तक रही है, उन सबका उद्देश्य जनता की सुख-समृद्धि के लिए हर तरह का प्रयास करना ही रहा है। निश्चित रूप से इसीलिए देश का विकास होता रहा और इस तेजी से विकास हुआ कि जहां आजादी के बाद जिस देश में एक सूई बनाने का कोई कारखाना नहीं था, वह देश अब मंगल ग्रह पर अपना ठिकाना ढूंढ रहा है और अपना भारत देश विश्व के गिने-चुने श्रेष्ठ देशों की श्रेणी में पहुंच गया है। पढ़ने और देखने में अब तक जो आया है कि अपने सीधेपन के कारण अथवा गरीबी और अशिक्षित होने के कारण बहकावे और प्रचार में आकर हमारी भोली-भाली जनता जल्दी विश्वास कर लेती है। यदि सीधे शब्दों में कहें तो जनता को बहकाकर अपना हित साधना आज के राजनीतिज्ञों का अंतिम लक्ष्य बन गया है। वह चिकनी-चुपड़ी बातां से जनता को सम्मोहित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। दूसरे देशों मै ऐसे राजनीतिज्ञो को सबक सिखाना तो जनता जानती है, क्योंकि वहां का कानून इसकी अनुमति देता है, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है, क्योंकि यहां के कानून में इतनी पेचीदगियां हैं कि कोई आम जनता चाहकर भी ऐसे नेताओं को कटघरे में खड़ा नहीं करा सकती है। यहां के सत्ताधारियां ने इस तरह का माहौल बना दिया है कि यदि विपक्ष की कोई बात करे तो उसे बिजली के ग्यारह हजार वाट जैसा झटका लगता है। क्रोधित होकर वह पंडित जवाहरलाल नेहरू से कोसना शुरू करता है और इस तरह की बचकानी दलीलें देता है कि शायद जवाहरलाल नेहरू यदि सिगरेट नहीं पीते होते तो आज भारत कहां से कहां पहुंच गया होता। भारत सरकार के एक तथाकथित कर्मचारी का कहना था कि आप चाटुकार हैं और मैं भक्त हूं। लोग तर्क देते हैं कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने देश को लूट लिया। फिर एक विचार आया कि यदि देश के सत्तारूढ़ दल को सिगरेट से इतनी नफरत है तो देश में सिगरेट की फैक्ट्री और उसकी बिक्री अब तक बंद क्यों नहीं हुई! यदि राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने देश को इतना लूटा है तो माल गया कहां? और, यदि इसका पुख्ता प्रमाण है तो फिर दोनों को देशनिकाला अथवा जेल में क्यों नहीं डाल दिया जाता है? उस पर सत्तारूढ़ दल के तथाकथित नेता कहते हैं कि यदि ऐसा किया तो ‘गूंगी गुड़िया’ के कारण हम चुनाव हार जाएंगे। हम उसके खिलाफ दुष्प्रचार की मुहिम चलाएंगे और चला भी रहे हैं, लेकिन देशनिकाला अथवा जेल में बंद नहीं करेंगे। सिगरेट की भी फैक्ट्रियां और दुकानें चलती रहेंगी, लेकिन जवाहरलाल नेहरू और उनके घराने को बदनाम करते रहेंगे। हमारे सही और गलत काम पर जो अंगुली उठाएगा, उसके खिलाफ मुहिम चलाकर समाज में उसे जीने नहीं देंगे। हम चुनाव हारने से डरते हैं, लेकिन जनता को डराकर भी रखना भी जानते हैं।
जनतंत्र है। हमारे देश के संविधान निर्माताओं में बहुत बुद्धिजीवी और विचारक थे, जिन्होंने कश्मीर से कन्याकुमारी तक को एक सूत्र में बांधा और हर वर्ग के व्यक्ति को सामान्य अधिकार देकर उसके सम्मान को बढ़ाया। लेकिन , जब उनके द्वारा बनाए गए नियमों का दुरुपयोग होता है तो निश्चित रूप उन विभूतियों को दर्द महसूस होता होगा जिन्होंने वर्षों संघर्ष किया और एक संत की अगुवाई में देश को आजाद कराया। हम अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की चर्चा करें तो उन्होंने भारत ही नहीं, साउथ अफ्रीका जाकर भी अंग्रेजों को सबक सिखाया। सरदार वल्लभ भाई पटेल को हम कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने ‘एक शासक, एक राष्ट्र’ बनाने में अपना जीवन अर्पण कर दिया। हजारों क्रांतिकारियों ने अपने प्राण समर्पित इसलिए कर दिए, क्योंकि उन्हें आत्मगौरव की अनुभूति होती थी कि हमारा भारत आजाद होगा और हम आजाद भारत के नागरिक होंगे। मैनेजमेंट गुरु शिव खेरा ने अपनी किताब ‘जीत आपकी’ में एक अच्छा उदाहरण दिया है जिसे आज देश के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। उन्होंने लिखा है कि किसी कंपनी का मैनेजर रिटायर हो रहा था उससे चार्ज लेने वाले मैनेजर ने कहा कि कुछ सीख आप दीजिए। रिटायर होने वाले मैनेजर ने दो लिफाफे देकर समझाया कि कभी कोई बड़ा संकट आए तो लिफाफा नंबर एक खोलना और जब दुबारा संकट आए तो लिफाफा नंबर दो खोल लेना। कुछ दिन बाद संकट आया और कंपनी में हड़ताल हो गई। मैनेजर संभाल नहीं पा रहा था। उसे याद आया कि पुराने मैनेजर द्वारा दिया गया लिफाफा नंबर एक। उसने उसे खोला। सीख के रूप में पुराने मैनेजर ने उसमें लिखा था- ‘सारी कमियों को अपने पुराने प्रबंधक पर डाल दो।’ काम करने वालों ने मान लिया कि हां ऐसा हो सकता है। मामला शांत हो गया। फिर कुछ दिन बाद दुबारा संकट आया। मैनेजर संभाल नहीं पाया और फिर उसे दूसरे लिफाफे की याद आई। उसे खोलने पर उसके पैरों तले की जमीन सिसक गई। उसमें लिखा था- ‘अब अपने लिए भी दो लिफाफे बना लो।’ देश अभी जिस संकट और भय के दौर से गुजर रहा है उसमें शायद लिफाफा नंबर एक ही खोला गया है जिसमें ‘सारा दोष पूर्ववर्ती सरकार पर डाल दो’ लिखा है। अब जनता को और सरकार को यह देखना और समझना है कि लिफाफा नंबर दो खोलने की स्थिति आती भी है अथवा नहीं। और यदि आती है तो कब तक। हम तो ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि ऐसी स्थिति कभी न आए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

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