खेल मंत्रालय का यह कैसा खेल

राजेंद्र सजवान

उच्च न्यायालय के आदेश के बाद खेल मंत्रालय द्वारा वीरवार को 54 राष्ट्रीय खेल संघों की वार्षिक मान्यता वापस लिए जाने को कुछ खेल जानकार और खेल प्रेमी भारतीय खेलों का काला दिन बता रहे हैं। इस आदेश के बाद  देश में अब कोई भी खेल मान्यताप्राप्त नहीं रह गया है। एक तो कोरोना काल के चलते देश में खेलो की हालत खराब है और तमाम खेल बंद कमरों में सिमट कर रह गये हैं तो अब कोर्ट का फैसला  और मंत्रालय का कदम भारतीय खेलों की बर्बादी की नई कहानी की तरफ इशारा करते हैं।

बेशक, इस फ़ैसले से यह साबित हो गया है कि देश में खेलों को नियंत्रित करने वाला मंत्रालय अपना काम सही अंजाम नहीं दे रहा। यहाँ तक कहा जा रहा है कि खेल जैसे विषय पर सरकार गंभीर नहीं है और खेल मंत्रालय फेल हो गया है।

इसमें दो राय नहीं कि देर सबेर सभी खेल संघों को फिर से मान्यता मिल जाएगी, जैसा कि आज़ादी के बाद से अपने देश में होता आया है, फिर वही दोहराया जाएगा और कोर्ट के सामने नाक रगड़ कर हमारे अवसरवादी खेल अधिकारी फिर से खेल मंत्रालय के लाड़ले बन जाएँगे। इतना निश्चित है कि खेल मंत्रालय को अपने मुँह लगे खेल संघों की मान्यता के लिए अब नये सिरे से प्रयास कारने होंगे, नया प्रार्थना पत्र अदालत में दाखिल करना होगा और तत्पश्चात ही खेल संघों की मान्यता को बहाल किया जाएगा। लेकिन मंत्रालय और मंत्री की किरकिरी तो हो चुकी ना!

इसमें दो राय नहीं कि उच्च न्यालय के आदेश से देश के खिलाड़ी, खेल अधिकारी, खेल मंत्रालय और खेल संघों के अवसरवादी हैरान रह गये हैं। लेकिन एक वर्ग है जोकि मानता है कि यह फ़ैसला देश के खेलों और खिलाड़ियों के हित में है। लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि सभी खेल संघों को फिर से मान्यता देने से पहले ठोक बजा कर देख लिया जाए और जो खेल संघ अपने दाईत्वों का निर्वाह ईमानदारी से नहीं कर रहे उनको अमान्य घोषित कर दिया जाए।

भारतीय खेलों पर सरसरी नज़र डालें तो खेल संघों की राजनीति देश की दलगत राजनीति से भी बदतर हालत में है। यदि देश की राजनीतिक पार्टियों में गुंडे, रेपिस्ट और सजायाता भरे पड़े हैं तो यही हाल खेल संघों का है। यही कारण है कि देश के खेल लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। खेल मंत्रालय ऐसे  लोग चला रहे हैं जिन्हें खेलों से कभी कोई लेना देना नहीं रहा। खेल मंत्रालय, मंत्री, और खेल प्राधिकरण के अधिकारी झूठ फैलाने के लिए कुख्यात रहे हैं।

ओलंपिक में दस बीस और दर्जनों पदक जीतने का दावा करने वालोंको अपने खेलों की हैसियत और उन खेलों को चलाने वाले भ्रष्ट अधिकारियों के बारे में कोई जानकारी नहीं या जान बूझकर अंजान बने रहते हैं। बेशक, मंत्रालय और खेल संघों की मिली भगत के चलते ही कई खेल संघों का कारोबार फलफूल रहा है।

ओलंपिक पदकों के नज़रिए से देखें तो आज़ादी के 73 साल बाद भी भारत के खाते में मात्र  एक व्यक्तिगत स्वर्ण पदक है। कभी हॉकी के आठ स्वर्ण पदकों की हुंकार भरते हैं तो कभी कुश्ती, मुक्केबाज़ी, बैडमिंटन, टेनिस, निशाने बाजी और वेटलिफ्टिंग में मिली छुटपुट सफलताओं पर इतराते फिरते हैं। लेकिन असलियत में भारत दुनिया का सबसे फिसड्डी खेल राष्ट्र है। कम से कम देश की आबादी और जीते गये पदकों के अनुपात के आधार पर तो यही कहा जा सकता है।

कई खेल संघ वर्षों से देशवासियों के खून पसीने की कमाई को अपनी अय्यासी औरTमौज मस्ती पर खर्च कर रहे हैं। ऐसे  खेल भी ओलंपिक और एशियाड में भाग ले रहे हैं जिन्होने पदक की शक्ल तक नहीं देखी। चूँकि उन्हें खेल मंत्रालय का संरक्षण मिला है और भारतीय ओलंपिक संघ उनका इस्तेमाल अपनी गुटबाजी के लिए कर रहा है, इसलिए मृतवत खेलों को जबरन ज़िंदा रखा गया है।

हाल के घटनाक्र्म  पर नज़र डालें तो आईओए में जो कुछ चल रहा है,उससे देश के खेलों की तस्वीर साफ हो जाती है। आईओए के दो गुट आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। उच्च न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित खेल संघों के अधिकारी इस लड़ाई को खुल कर लड़ रहे हैं और खेल मंत्रालय बस मुँह ताक रहा है। यह जानते हुए भी कि टोक्यो ओलंपिक सर पर है और कोरोना खिलाड़ियों की कोशिशों पर भारी पड़ रहा है, खेल मंत्रालय चुप्पी क्यों साधे है? क्या इस लड़ाई का खिलाड़ियों की तैयारी और प्रदर्शन पर असर नहीं पड़ेगा खेल मंत्री जी?

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं। ये उनका निजी विचार हैचिरौरी न्यूज का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है।आप राजेंद्र सजवान जी के लेखों को  www.sajwansports.com पर  पढ़ सकते हैं।)

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