पहले सतर्क हो जाएं : सांप गुजरने के बाद लकीर क्यों पीटें

निशिकांत ठाकुर

पिछले दिनों कोरोना संक्रमित हो जाने के कारण दीन-दुनिया से पूरी तरह कट कर क्वारंटाइन होकर खुद को स्वस्थ करने में लगा रहा। अब काफी हद तक स्वस्थ महसूस कर रहा हूं, इसलिए आपके समक्ष आने में समर्थ हो सका हूं। कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में लेकर साबित कर दिया है कि यदि प्रकृति की नजर टेढ़ी हो गई तो फिर उसे संभालने में चाहे जितने भी धनबल और जनबल का इस्तेमाल कर लें, तो भी भारी नुकसान झेलने से बच नहीं सकते हैं। यह अब सब पिछले करीब एक साल से सब देख रहे है, लेकिन फिलहाल उसका निराकरण निकालने में हम सफल नहीं हो सके हैं। कोरोना का जो दूसरी लहर आई है, वह कितनी मारक है इसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। आप घर में खुद को सुरक्षित मानकर बैठे हैं, लेकिन आपको पता तक नहीं चला कि आप उस छुपारुस्तम, यानी मारक रोग की चपेट में आ चुके हैं। दवा और इंजेक्शन की बाजार में उपलब्धता लगभग खत्म है। कह सकते हैं कि कालाबाजारियों ने प्राणरक्षक इंजेक्शन और दवाओं को अपने गोदान में ऊंची कमाई के लिए तहखाने में कैद कर रखा है।

सरकार को इतनी फुरसत नहीं कि वह ऐसे देशद्रोहियों पर कड़ी कार्यवाही करे, जो जीवनरक्षक दवाओं की कालाबाजारी करके अपनी तिजोरी भरना चाहते है। इसके कई कारण हैं, लेकिन पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव तथा कई राज्यों के ग्राम पंचायतों का चुनाव तत्कालीन प्रमुख कारण माने जा सकते हैं। जिन लोगों पर देश की जनता ने भरपूर विश्वास किया, दो-दो बार अपना भरपूर समर्थन दिया, उनकी भूमिका केवल राज्यों ही नहीं, बल्कि गली-मोहल्लों में अपनी सरकार बनवाने भर तक सिमटकर रह गई है। जिस दिल्ली से पूरा देश चलता है, वही दिल्ली राजनेता विहीन हो गई, क्योंकि चाहे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के, सब अपने को खलीफा साबित करने से उन पांचों राज्यों की जनता को फुसलाने-झुठलाने-बरगलाने में लगे हुए थे कि किसी-न-किसी प्रलोभन में आकर जनता उनसे रीझ जाए और वहां उनकी सरकार बन जाए। परिणाम क्या हुआ कि पूरे देश के श्मशान घाट और कब्रिस्तान लाशों से पट गए और सरकार चुनाव जीतने के लिए खासकर, एक जिद्दी महिला के पीछे अपने घुड़साल के सारे घोड़े खोल दिए।

सांप गुजर जाने के बाद लकीर पीटने की कहावत अपने देश में ही चरितार्थ होती हैं। जब महामारी चरम पर है, तब नए-नए आदेश जारी करके जनता में क्या साबित करना चाहते है श्रीमान ? क्या इस महामारी के दूसरे फेज के आने से हम बेफिक्र हो गए थे? कोई माने या नहीं, लेकिन इसे बेहिचक स्वीकार कर लेना चाहिए कि बड़ी-बड़ी रैलियों और रोड शो का ही दूरगामी परिणाम है कि बिहार में महामारी ने अपना चरम रूप धारण कर लिया है और मुख्यमंत्री को 15 मई तक लॉकडाउन की घोषणा करनी पड़ी। चुनाव के समय तो यह बात आम होती है कि बाहुबल और धनबल के दम पर रैलियों में भाग लेने के लिए गांव के गांव तक बुलाए जाते है। ऐसे लोगों को चूंकि चंद खनकते सिक्कों या फिर पव्वों के आगे अपनी जिंदगी की सुरक्षा की भी परवाह नहीं होती, ऐसे में उसका दुष्परिणाम चुनाव के बाद ही देखने को मिलता है। अभी दिल्ली-मुंबई का जो हाल है, वही बिहार का होनेवाला है और ऐसा ही हाल कुछ दिन बाद प. बंगाल में भी देखने को मिलेगा। इसके बावजूद यदि जनता नहीं चेती और सरकार नहीं जागी, तो फिर क्या होगा, इसे बताने की कोई जरूरत नहीं है।

कई राज्यों से यह खबर आ रही है कि वहां की सरकार कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या जानबूझकर कम बता रही है। इसके कई कारण हो सकते हैं। दरअसल, सरकार सही आंकड़ा देकर जनता के क्रोध को बढ़ाना नहीं चाहती। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मृतकों का सही आंकड़ा उन तक पहुंचता ही नहीं हो। जो भी हो, आज मानव जीवन महत्वहीन है, क्योंकि महामारी के इस दौर में कब इंसान काल के गाल में समा जाए, यह अब अबूझ पहेली बन गई है।

अब जरा बंगाल सहित पांच राज्यों में जो चुनाव हो चुके हैं या हो रहे है, उनकी स्थिति का आकलन करें। रिजल्ट तो दो मई को आना है, लेकिन सबसे अधिक जिस राज्य पर पूरे देश का ध्यान केंद्रित है, वह है प. बंगाल। यह लेख लिखे जाने तक वहां आठ में से छह चरणों के चुनाव हो चुके हैं। 294 सीटों वाली विधानसभा में तृणमूल कांग्रेस के पास 211 सीट है और ममता बनर्जी दस वर्षों से प्रदेश की सत्ता संभाल रही हैं। इस चुनाव में ममता बनर्जी पर सारे आरोप लगे, लेकिन अडिग होकर उन्होंने उसका सामना किया। उनके करीबियों को तोड़ा-मरोड़ा गया, उनके पैर भी टूटे, लेकिन फिर भी वह बेखौफ चुनाव प्रचार करती रहीं और अब भी ममता बनर्जी का दावा है कि प. बंगाल की जनता उन्हें फिर से सत्ता सौंप रही है, क्योंकि उन्होंने कोई कमाई नहीं की है, जनता के साथ धोखा नहीं किया और अपना गोदाम नहीं भरा। लेकिन, , सत्ता के लिए बेताब भाजपा को अपनी कमी तो दिखती नहीं है और तरह-तरह के आरोप लगाने की पुरानी आदत से भी बाज नहीं आ रही है।

आखिरकार जनता चाहे जो निर्णय ले, वह दो मई को सार्वजनिक हो ही जाएगा। यदि दस वर्षों तक ममता बनर्जी ने सत्ता में रहकर राज्य की जनता के लिए अच्छा किया होगा, तो फिर से सूबे की सियासी कमान संभालेंगी और यदि राज्य की जनता के साथ छल किया गया होगा तो फिर संभव है कि बंगाल की जनता नई पार्टी की सरकार बनाने का अवसर दे। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर अब चुनावी रैलियों का दौर तो लगभग खत्म हो गया है, लेकिन अब तक जो भी ऐसी रैलियां हुईं, जो भी रोड शो हुए, क्या उसका कोई दुष्परिणाम नहीं होगा? हजारों-हजार की संख्या में लोग इन रैलियों सभाओं-जुलूसों-रोड शो में कोरोना से बचाव के बिना कोई उपाय किए, बगैर मास्क लगाए और शाररिक दूरी के नियम का पालन,किए बगैर जुटे तो क्या उसका दूरगामी परिणाम कुछ नहीं झेलना होगा?

वैसे प्रधानमंत्री ने बंगाल की चार रैलियों को रोककर कई राज्यों के मुख्यमंत्रियो से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आदेश-निर्देश जारी किए हैं। आज की जो सब बड़ी चुनौती ऑक्सीजन आपूर्ति की है, उससे निजात दिलाने का आदेश दिया है और कहा है कि यदि ऑक्सीजन की आपूर्ति में किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न होता है तो उसके लिए जिले के जिलाधिकारी जिम्मेदार होंगे। तीन तीन लाख संक्रमित का एक दिन में मिलना डरावनी है। यदि तुरंत कोई जादुई छड़ी नहीं घुमाई गई तो इसके परिणाम क्या होंगे, यह कहने की जरूरत नहीं है। सरकार ने अब कठोर निर्णय लेने का फैसला किया है, लेकिन काश ऐसा निर्णय पहले लिया गया होता तो लाशों के जो अंबार अस्पतालों एवं श्मशान घाटों पर पड़ा है और सरकार को अपनी इज्जत बचाने के लिए झूठ का जो सहारा लेकर आपस में दोषारोपण करना पड़ रहा है, उसकी नौबत ही नहीं आती। फिर भी देर से ही सही, सरकार इस पर यदि ठोस कदम उठा ले तो अभी भी महामारी के मारक दर को कम जरूर किया जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

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