भारतीय मुसलामानों में हिन्दू रीति रिवाज

(ये तस्वीर सिर्फ प्रतीक के लिए इस्तेमाल की गयी है.)

आमिर रिज़वी

सरज़मीने हिन्द पर अक़वामे आलम के फ़िराक़,

क़ाफ़ले बास्ते गए हिंदुस्तान बनता गया।

उर्दू कवि रघुपति सहाय फ़िराक़ ने ऊपर लिखी दो पंक्तियों में भारत का इतिहास जिस सुंदरता से समेट दिया है शायद ही किसी दूसरे शायर ने किया हो। इस में कोई संदेह नहीं कि भारत की धरती दुनिया भर की सभ्यताओं के लिए आकर्षण का केंद्र रही। मेरे ख्याल से इस का सबसे बड़ा कारण भारतवर्ष की भौगोलिक स्थिति रही। गंगा के उपजाऊ मैदान खेती पर आश्रित मनुष्य के लिए सोने की खदान से कम नहीं थे। शायद यही कारण है कि जो भी यहाँ एक बार आ गया फिर यहीं का हो कर रह गया।

ईरान को छोड़ कर अरब और अफ़ग़ानिस्तान से आने वालों के साथ भी ऐसा ही हुआ। रेगिस्तान और पथरीली पहाड़ियों की कठिन परिस्थितियों में जीवनयापन करने वाले मुस्लमान शासकों ने भारत की धरती पर अपने पैर रखे तो अनायास ही उनके मुंह से निकला,

अगर फिरदौस बर रूए ज़मीं अस्त,

हमीं असतो, हमीं असतो, हमीं अस्त।

अर्थात यदि पूरी धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।

जिस तरह दो अलग अलग रंगो के मिलन पर तीसरे रंग का जन्म होता है, या दो विभिन्न सुगंधों के तालमेल से तीसरी सुगंध का उद्गम होता है, उसी तरह दो सभ्यताओं के मिलन पर तीसरी सभ्यता का भी उदय होता है।  अरब और अफ़ग़ानिस्तान जैसी बेरंग धरती वालों ने जब भारत के आँचल में फैले भाषा, रीति रिवाज, खान-पान के विविध रंग देखे तो उनकी आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं।

एक मशहूर क़िस्सा सुनते चलिए…

दिल्ली के क़त्ले आम के बाद मुहम्मद शाह रंगीले ने जब नादिर शाह से सुलह की और अपनी एक बेटी की शादी नादिरशाह के एक बेटे से की तो एक भोज का आयोजन किया। इस आयोजन की रंगारंगी, खाने में परोसे जाने वाले सैकड़ों प्रकार के पकवान, एक से बढ़कर एक पोशाकों में सजे ग़ुलाम और कनीज़ें देख कर नादिरशाह की हैरानी का ठिकाना न रहा और उस ने मुहम्मद शाह रंगीले से पूछ ही लिया कि “तुम बादशाहत करते हो या ख़ुदाई?”

इस क़िस्से का उल्लेख करने का उद्द्श्य यह था कि मैं अपने पाठकों को भारतीय सभ्यता और बाहर से आने वालों की सभ्यता का अंतर बता सकूं।

भारत में मुस्लिम शासकों के आने और स्थापित होने के बाद जिनमें अरब, ईरानी, तुर्क और मुग़ल उल्लेखनीय हैं, भारत के मूल निवासी आर्यों के बीच लेन देन और अन्य सामाजिक समागम का प्रारम्भ हुआ। इस में केवल खान-पान, भाषा और रहन सहन ही शामिल नहीं थे बल्कि पहले से चली आ रही मान्यताओं का समागम भी था, जिसके कारण धीरे-धीरे भारत में आये मुसलमानों के समझ में भारत की पुराणी मान्यताएं भी अपना स्थान बनाने लगीं।

इस नए समाज में तीज त्योहारों पर बनने वाले पकवान , पहनावे, शादी-ब्याह में होने वाली रस्मों में पहले से समाज में मौजूद रीति-रिवाज ने अपना एक विशेष स्थान बना लिया। जैसे कि अरब, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान से आये मुसलमानों की शादी-ब्याह बहुत सहज होती थीं। दुल्हन को सफ़ेद जोड़ा पहनाया जाता था, दूल्हे को पगड़ी, इबा क़बा। क़ाज़ी निकाह पढ़ता था, एक या दो प्रकार का खाना परोसा जाता था और लड़की वालों की ओर से शादी का समारोह पूरा हो जाता था। लड़के वालों के यहाँ भी दुल्हन आने के बाद “वलीमा” अर्थात बहु भोज का आयोजन होता था और शादी पूरी हो जाती थी।

आज भी अरब देशों में शादियां ऐसे ही होती हैं। पर जब हम भारत के मौजूदा मुस्लिम समाज में पैदा होने वाली रस्मों को देखते हैं तब हमें मालूम होता है कि यहाँ की  शादियां अन्य मुस्लिम देशों में रहने वाले मुस्लिम समाज से कितनी भिन्न हैं। आइये यहाँ की कुछ रीति-रिवाज का हम भी अवलोकन करें जो हिन्दू सभ्यता से यहाँ के मुस्लिम समाज ने ले ली हैं।

मांग भराई की एक रस्म है जिसमें दूल्हा दुल्हन की मांग में संदल या सिन्दूर भरता है। यह रस्म शुद्ध रूप से हिन्दू रीति है। इसी तरह गोद भराई की रस्म, उस समय होती है जब दुल्हन को दूल्हा विदा कर के ले जाता था।  गोद भराई में दुल्हन की गोदी में अन्न, हल्दी, हरी पड़दियाँ या हरी घास, नारयल का एक गोला और कुछ सिक्के रखे जाते हैं।

इस रस्म के पीछे भी वही हिन्दू मान्यता है कि इससे वर-वधु को हर प्रकार की सम्पन्नता प्राप्त होती है।  हल्दी की रस्म भी वर और वधु दोनों के घरों पर होती है।  जिसमे उप्टन लगाना, मेहदी लगाने का कार्य होता है।  जूता चुराई, कोहबर छिकाई, दरवाज़ा छिकाई आदि रस्मे शामिल हैं जो कि भारत के मुस्लिम समाज की शादियों में बड़े धूम-धाम से की जाती हैं।

नयी वधु से कड़ाही छुलाई की भी एक रस्म है जिसमें दुल्हन से पूरी या कुछ कुछ इलाक़ों में पुआ छानवाया जाता है। इस रस्म में यदि पूरी या पुआ छानते समय फट जाए तो माना जाता है कि वधु की कोख में शिशु आ गया है।

इस प्रकार यदि भारतीय मुस्लिम समाज की शादी ब्याह में होने वाली उन रीति रिवाज उल्लेख करुँ जो मूलतः हिन्दू रीति रिवाज हैं तो एक पूरी किताब भी प्रायः कम पड़े। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि भारत के मुसलमान दुनिया भर के मुसलामानों से अपने रीति-रिवाज और मान्यताओं के आधार पर पूरी तरह भिन्न ही हैं। यह एक नए प्रकार का समाज है जो सदियों के समागम के बाद आज इस रूप में हमारे सामने है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इस्लामिक मामलों के जानकार हैं. चिरौरी न्यूज़ का लेखक की विचारों से सहमत होना अनिवार्य नहीं है.)

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