न्यायिक प्रक्रिया को भी नई दिशा देने की जरूरत

Judicial process also needs to be given a new directionनिशिकांत ठाकुर

किसी विषय पर जनहित के लिए सर्वसम्मत मत बनाने के लिए जिस प्रकार के मंथन का नियम भारतीय संविधान के तहत संसद के दोनों सदनों में होता है, उसका उससे श्रेष्ठतम उदाहरण देश में दूसरा नहीं मिल सकता। संसद द्वारा देश के लिए जो भी कानून बनाए जाते हैं, उसमें हिस्सा लेने का, उस पर अपना मंतव्य देने का अधिकार प्रत्येक सांसद को है। इस संविधान को उस समय बनाया गया था जब सड़क, रेल, फोन आदि का विकास नहीं हुआ था, लेकिन संविधान सभा के सदस्यों ने एक—एक नागरिक, एक— एक स्थान और उनकी हर समस्या को समझा। फिर उनका निदान किस तरह हो, इस पर विचार मंथन का प्रावधान किया। इन्हीं सब खूबसूरती के कारण हमारे देश का उज्जवल विकास होता जा रहा है और हम गर्व से कहते हैं कि हमने आजादी के बाद से बहुत कुछ पाया है। यह भी सही है कि लूटने वालों ने हमें जी भरकर लूटा, लेकिन भारतीय भंडार खाली नहीं हो सका। हमारे देश में हर सुख-दुख को मिल—बैठकर उस पर पहले मनन करते हैं, विचार—विमर्श करते हैं, फिर अच्छा-बुरा का भेद करके देश के कोने—कोने में उसे पहुंचते हैं। कहते हैं जब तक जमीन समतल नहीं होगी, उसके हर कोने में सामान्य रूप से पानी नहीं पहुंचाया जा सकता और परिणाम स्वरूप फसल भी एक जैसी नहीं होगी। इसलिए जो भी सरकारें आजादी के बाद आईं, सबने इन्हीं नियमों का पालन उन्नीस-बीस करके किया, जन-जन को एक माला में तरह-तरह के फूलों से गूंथने का सफलतापूर्वक परीक्षण किया।

पिछले सप्ताह नई दिल्ली में आयोजित राज्यों के मुख्यमंत्री और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिस्सा लेकर देश को नई दिशा देने के लिए गंभीर विषय पर चिंतन-मनन किया है। अपने भारत में यह भी कहा जाता है कि समुद्र मंथन के कारण ही अमृत प्राप्त हुआ था। जिस विषय पर यह मंथन आयोजित था, वह गुलामी काल का अति गंभीर विषय था। विषय था— न्याय आम जनता की भाषा में होना चाहिए। सच में अपने यहां यदि किसी व्यक्ति को फांसी की सजा भी दी जाती है तो यह बात उसके वकील द्वारा बताई जाती है। फांसी पर झूलने जा रहे शख्स को यह बात समझ में नहीं आई होती है कि किन परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर उसे इस तरह की सजा दी गई है। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि किसी भी देश में सुराज का आधार न्याय होता है, इसलिए न्याय जनता से जुड़ा होना चाहिए, जनता की भाषा में होना चाहिए। जब तक न्याय के आधार को सामान्य मानव नहीं समझता, उसके लिए न्याय और  राजकीय आदेश में फर्क नहीं होता। प्रधानमंत्री ने कहा कि अदालतों को स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है; क्योंकि इससे आम आदमी का न्याय प्रणाली पर भरोसा बढ़ता है। प्रधानमंत्री का यह कहना कि न्याय त्वरित, सुलभ के साथ-साथ सबके लिए होना चाहिए, आमजन की सोच के लिए हृदय स्पर्शी है। रही न्याय पर आमजन के भरोसे की बात, तो सच तो यह है कि एक अति साधारण व्यक्ति भी यदि नौकरशाही के फंदे में फंस जाता है या बाहुबलियों के जुल्म-ओ—सितम से आक्रांतित होता है। वह केवल यही चुनौती देता है कि ‘हम न्याय पर भरोसा करते हैं, इसलिए अदालत में ही देख लेंगे।’ इस सम्मेलन का परिणाम यह हुआ कि वर्ष 1968 में स्थापित विधि साहित्य प्रकाशन  का काम सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट द्वारा दिए गए फैसलों को हिंदी अनुवाद करना है । अभी तक पचास हजार फैसले अनुवादित कर दिए गए हैं ।

देश के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण ने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका कभी शासन के रास्ते में आड़े नहीं आएगी, लेकिन अगर वह नियमानुसार अर्थात कानून के अनुसार हो तभी। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सरकार ही सबसे बड़ी मुकदमेबाज है, इसलिए वह कोर्ट के आदेशों को वर्षो तक लागू नहीं करने के कारण अवमानना का मुकदमा बढ़ाने से एक नई श्रेणी तैयार होती है। कोर्ट का आदेश होने के बावजूद कदम न उठाना लोकतंत्र लिए अच्छा नहीं है। उन्होंने अदालतों में लगे मुकदमों के ढेर के कुछ कारण भी गिनाए। इसका उदाहरण देते हुए बताया कि अगर तहसीलदार जमीन के सर्वे या राशन कार्ड के बारे में किसान की शिकायत पर कार्रवाई करे, तो किसान कोर्ट क्यों आएगा? अगर ग्राम पंचायत और नगर निगम ठीक से काम करे, तो नागरिक अदालत की और क्यों देखेंगे? अगर राजस्व विभाग कानून का पालन करते हुए जमीन अधिग्रहीत करे, तो मुकदमों का बोझ नहीं होगा। मुकदमों का अधिकांश प्रतिशत इसी तरह का है। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यायिक प्रणाली में तकनीक के बढ़ते इस्तेमाल का जिक्र करते हुए कहा ई-कोर्ट परियोजना मिशन मोड में लागू हो रही है। न्यायपालिका में तकनीकी समग्रता और डिजिटलाइजेशन का काम तेजी से आगे बढ़ा है। प्रधानमंत्री  ने न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों से इस अभियान को विशेष महत्व देने का आग्रह भी किया। प्रधानमंत्री ने जेल में बंद साढ़े तीन लाख विचाराधीन कैदियों की जमानत पर विचार करने का भी अनुरोध करते हुए कहा कि इनमें से अधिकांश गरीब या सामान्य परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि देश के हर जिलों में जिला जज की अध्यक्षता में एक कमेटी हो, ताकि इन सबके मामले की समीक्षा हो सके। साथ ही उन्होंने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों से आग्रह किया कि मानवीय आधार और कानून को देखते हुए अगर संभव हो तो इसे वरीयता दी जाए।

भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने न्याय प्रणाली के भारतीयकरण पर जोर देते हुए उच्च न्यायालय में स्थानीय भाषाओं में कार्यवाही की जरूरत बताई। चीफ जस्टिस ने कहा कि उन्हें उच्च न्यायालयों में स्थानीय भाषाओं में कार्यवाही के संबंध में कई ज्ञापन प्राप्त हुए हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें लगता कि अब समय आ गया है जब इस मांग पर विचार किया जाए और इसे तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचाया जाए। इस पर प्रधानमंत्री ने प्रधान न्यायाधीश के इस स्थानीय भाषा में निर्णय देने की बात की सराहना की। उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रशंसा करते हुए कहा कि मुझे अच्छा लगा कि उन्होंने स्वयं इस विषय को  चुना। प्रधानमंत्री ने इस मामले पर सरकारी प्रयासों के बारे में कहा कि कानूनी भाषा को सरल बनाने की जरूरत है और उस दिशा में प्रयास करने की जरूरत भी है। इस संदर्भ में उन्होंने एक नई जानकारी दी कि हमारे देश में भी कानून की पूरी शब्दावली हो, जो सामान्य जनमानस के समझ में आने वाली भी हो। यह दोनों बात एक साथ विधानसभाओं और सांसद में पारित हो, ताकि आगे चलकर सामान्य व्यक्ति उसके आधार पर अपनी बात रख सके। प्रधानमंत्री ने बताया कि कई देशों में यह परंपरा है जिसके अध्ययन के लिए भारत ने भी एक समिति बनाई है।

देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी कहते थे कि सरकार अपनी योजना पर पूरा ध्यान देती है, लेकिन उस योजना का लाभ पंक्ति में खड़े आखिरी व्यक्ति तक कितना पहुंचता है, यह जानना महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री की सोच में कोई कमी नहीं है। कमी है तो उस नीयत की, उस आत्मविश्वास की, जिसके बल पर हम कोई भी हितकारी योजना का लाभ पंक्ति में खड़े आखरी व्यक्ति तक कितना अधिक से अधिक पहुंचा पाते हैं। इस सम्मलेन में जो भी बातें हुईं, जो भी योजनाएं बनाने की बात की गई, वह जनहित के लिए श्रेष्ठ सोच है। लेकिन, प्रश्न यह है कि यह योजना कब तक बनकर विधानसभाओं और सांसद से पास होकर कानून बनेगा, फिर कब उस पर अमल होगा। अब तक होता तो यही   रहा है कि बिना सजा सुनाए ही वर्षों तक निरपराध सलाखों के अंदर  अपनी जिंदगी खत्म कर लेते हैं। जैसा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष ही प्रधानमंत्री ने कहा कि बिना सजा सुनाए लाखों व्यक्तियों के जेल में बंद होना भारतीय न्यायिक व्यवस्था का कितना दुखद पहलू है, इसे दोहराने की जरूरत नहीं। अब तक जो भी होता रहा, उसे यदि हम नजरंदाज कर भी देते हैं तो इस बात की क्या गारंटी होगी कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा। यह ठीक है कि भारत एक विशाल देश है। यहां अनेक भाषाएं हैं। जल्दी पुरानी स्थिति को खत्म करके नई स्थिति से कल की शुरुआत करें, ऐसा तो नहीं हो सकता। इसमें समय तो लगेगा ही, लेकिन योजना पहले प्रारंभ तो हो।

एक बड़ी चुनौती वाली बात यह है कि सब कुछ हो जाएगा, लेकिन तब, जब पूरा देश जो चाहेगा। लेकिन, जब तक हमारा समाज शिक्षित नहीं होगा, हम पिछड़े ही रहेंगे और किसी रास्ते पर निर्भिज्ञ होकर आगे नहीं बढ़ सकेंगे। हमारा समाज पूरी तरह शिक्षित नहीं है। हमें सबसे पहले समाज को शिक्षित करना होगा। ऐसा इसलिए माना जाना चाहिए क्योंकि विकसित देशों में इतनी असामानताएं नहीं हैं। भारत आजादी के बाद ही विकसित हुआ है, लेकिन उस अनुपात में नहीं, जैसा कि अमेरिका, जापान जैसे विश्व के विकसित देश हैं। इसके अतिरिक्त विश्व में कई ऐसे देश भी हैं जहां मुफ्त शिक्षा का प्रावधान है। उनका मानना होता है कि जब तक हम शिक्षित नहीं होंगे, हमारा देश विकास नहीं कर पाएगा। अपने भारत के ही कई राज्य ऐसे हैं, जहां शिक्षा शत प्रतिशत है। इसलिए वहां देश का विकास दर भी सबसे अधिक है। हर नागरिक के अतिरिक्त सरकार का ही मुख्य दायित्व कि वह समाज को शिक्षित करे। समाज विकसित होगा तो कानून और व्यवस्था में अपने आप परिवर्तन आ जाएगा। अब देखना है कि भारत सरकार समाज को जागरूक करने के उद्देश्य से कितनी तेजी से उसके विकास पर ध्यान देती है जिससे समाज में कानून व्यवस्था बिल्कुल नियंत्रित हो जाए।

Due to ego and stubbornness, the world is on the cusp of the third world war.(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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