गर्व से कहिए कि हम ‘आजाद’ हैं

निशिकांत ठाकुर
अभूतपूर्व सुखद अहसास हो रहा है कि हमारे देश को आजाद हुए 75 वर्ष होने जा रहा है। हजारों वर्षों से गुलाम भारतभूमि को आजाद कराने के लिए कितने लोग शहीद हुए, कितनी महिलाओं के सुहाग उजड़े, कितने युवा हंसते—हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए… यह सब अब  इतिहास है, किंवदंती है, लेकिन सच यही है आज हम उन हुतात्माओं के बलिदानों को ही अब तक भुना रहे हैं, उस पर इतरा रहे हैं, गर्वित महसूस कर रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौर को देखने वाले चंद लोग ही अब जीवित हैं। आज देश में जो  शासक वर्ग फल—फूल रहा है, उनमें से शायद ही किसी ने गुलामी का वह काला अंधकारमय दिन देखा होगा, इसलिए उनके लिए ‘आजादी’ शब्द ‘मजाक’ से ज्यादा कुछ भी  नहीं है। इसी वजह से वे हंसी उड़ाते हैं, अपमानित करते हैं उन वीरों—महात्माओं की कुर्बानी एवं बलिदानों को, देश के प्रति जिनकी अटूट निष्ठा, प्रेम और  सम्मान के कारण हम आज आजादी की खुली हवा में जी खोलकर सांस ले पा रहे हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य भला और क्या होगा कि देश को आजादी दिलाने वालों की पहली पंक्ति के पहले व्यक्तित्व महात्मा गांधी भी आजाद भारत में सांस केवल आठ माह ही ले पाए। दरअसल, समाज के कुछ लोग कुंठा में अपने क्रोध को पचा नहीं पाए और सरेआम गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। सुभाष चंद्र बोस, जिन्होंने गरमदल के नेता के रूप में नारा दिया था ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ वह तो देश की आजादी देख भी नहीं पाए। उन हुतात्माओं ने, जिन्होंने अपने देश की आजादी के लिए बलिदान दिया- उनका देश की आजादी के प्रति कोई निजी स्वार्थ नहीं था, लेकिन वह यह भी नहीं चाहते थे जो गुलामी उनकी नियति बन गई, वही अगली पीढ़ी को भी झेलनी पड़े। वह भावी पीढ़ी को आजाद भारत में जन्म लेते देखना चाहते थे। इतिहास बताता है कि वर्ष 1947 में अपना देश दो टुकड़ों में बंटकर आजाद हुआ। उस काल में यहां की आबादी 38 करोड़ थी, लेकिन जीविकोपार्जन के लिए यहां सूई निर्माण का भी कोई उद्योग नहीं था। यानी, अंग्रेजों की गुलामी से तो आजाद हो चुके थे, लेकिन दरिद्रता की बेड़ियां तब भी हमें जकड़े हुए थीं। आर्थिक रूप से हम आजाद नहीं हो पाए थे। इसके लिए उस समय के तथाकथित भविष्यवक्ता ने भविष्यवाणी की थी कि भारतीय स्वयं में लड़कर खंड—खंड में विभाजित होकर कुछ समय बाद स्वत: नष्ट हो जाएगा।

कभी भारत अकूत धन संपदा का स्वामी था। एक से बढ़कर एक प्रकांड विद्वान यहां थे। आपसी सौहार्द का अनूठा माहौल था। नहीं था तो बस  विदेशी आक्रांताओं से लड़ने का हुनर। दरअसल, हम ईश्वर को मानने एवं उन पर आस्था रखने वाले वाले सीधे—सादे धार्मिक प्रवृति के लोग हैं। चूंकि हम बाहरी आडंबरों से अनभिज्ञ थे, क्योंकि हमें दिशा—निर्देश देने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं था। इसलिए आक्रांताओं द्वारा हमारे देश की अकूत खजाने को कई बार लूटा गया, कभी मुगलों ने तो कभी अंग्रेजों ने खंगाला। अभी भी भारत में गरीबों की विशाल आबादी है। सरकारी आंकड़े के अनुसार देश में गरीबी—रेखा के नीचे जीवन गुजारने वालों की आबादी करीब 23 करोड़ है जिसका कुछ हिस्सा शहरों में रहता है। आंखों को चुंधिया देने वाले शॉपिंग मालों और भारी—भरकम बहुमंजिले इमारतों के बाहर बहुत सारी झुग्गी—झोपड़ियां और गरीबों की अधिकांश बस्तियां हैं जहां शहर की एक बड़ी आबादी रहती है।

ऐसे लोग वह होते हैं, जो मध्यम वर्ग के यहां काम करते हैं, लेकिन फिर भी ये उनका हिस्सा नहीं हैं। वह अखबार बेचते हैं, लेकिन उसे कभी पढ़ नहीं पाते। कपड़े सिलते हैं, लेकिन उसे खुद कभी पहन नहीं पाते। कारें साफ करते हैं, लेकिन कभी उसमें बैठने का ख्वाब पूरा नहीं कर पाते। बड़ी—बड़ी गगनचुंबी इमारतें बनाते हैं, लेकिन उनमें एक रात भी गुजारने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। इस तरह के लोग दो जून की रोटी के लिए घंटों श्रम करते हैं। धातुओं की कटाई और रासायनिक पदार्थों को अलग करने का जोखिम भरा काम करते हैं। यह असंगठित मजदूर होते हैं, जिन्हें बिना किसी सूचना या नोटिस के कभी भी काम से निकाल दिया जाता है। ऐसे लोग बीमा और पेंशन की सुविधा से भी वंचित होते हैं। क्या यही हमारे देश का विकास है?

भारत गरीब नहीं था, इसीलिए इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था। लेकिन, भारत में एका नहीं था। हम खंड—खंड में बटे थे; इसी वजह से विदेशी लुटेरे अक्सर हमें लूट लेते थे, हमें गुलाम बनाकर ले भी जाते थे। बात सन् 712 की है। बीस वर्ष का मुहम्मद-बिन-कासिम नामक मुसलमान लुटेरा केवल छह हजार घुड़सवार लेकर बलूचिस्तान की विशाल मरुभूमि को पार करता हुआ बेरोकटोक भारत आ धमका। लूट की अपनी उस मुहिम में वह सत्रह हजार मन सोना, ठोस सोने की  छह हजार मूर्तियां जिनमें से एक का वजन तीस मन था, बीस ऊंटों पर हीरा-मोती-पन्ना-मानिक लेकर लौट गया। उसने मित्र-शत्रु प्रत्येक हिंदू का कत्ल कर दिया। जिस मार्ग से वह गुजरा, उस राह के सभी मंदिरों को ध्वस्त कर दिया, गांव जला दिए। मुगलों की लूट का यह एक छोटा नमूना है।

अब एक उदाहरण अंग्रजों का भी देख लीजिए। भारत जैसे समृद्ध देश के धन—संपदा—वैभव की बात जब अंग्रेजों के कानों में पहुंची तो उसकी लोलुप दृष्टि भारत पर पड़ी और उनकी साहसिक प्रवृति 17वीं शताब्दी (1608) के आरंभ में भारत तक खींच लाई। फिर धीरे—धीरे उसने अपना रंग दिखाना शुरू किया और जहाज—दर—जहाज महारानी को नजराने के रूप में भारतीय हीरे-जवाहरात पेश किए जाने लगे। केवल एक उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कितनी संपदा को लूटा गया होगा और भारत जैसे सोने की चिड़िया का अंग—भंग  करने का भरपूर प्रयास किया गया। तभी तो गवर्नर जनरल ने कहा था— हम एक गुप्त खजाना लंदन भेज रहे हैं। सामने से पर्दा हटाया गया । लोहे के सात बक्शे नजर आए जिनके ढक्कन खुले थे। अंडर सेक्रेटरी ने विवरण सुनाया तो सबकी आंखें फटी—की—फटी रह गईं। बताया गया तीस मन हीरे, छह करोड़ रुपये, दो सौ मन सोना, आठ सौ मन चांदी के अतिरिक्त दिल्ली के मुगल बादशाह का जगतविख्यात तख्ते-ताऊस भी वहां रखा था जिसकी कीमत उस समय सात करोड़ रुपये थी।

भारत के प्राचीन समय के अविभाजित स्वरूप को ‘अखंड भारत’ कहा जाता है। प्राचीन काल में भारत बहुत विस्तृत था जिसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, बर्मा, थाइलैंड शामिल थे। कुछ देश जो बहुत पहले अलग हो चुके थे, वहीं पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि अंग्रेजों से स्वतंत्रता के दौर में अलग हुए। समुद्रगुप्त ने अखंड भारतवर्ष का विस्तार किया था। ईसा पूर्व 380 में इनकी मृत्यु हो जाने के बाद उनके पुत्र चंद्रगुप्त—2 ने भी अखंड भारतवर्ष का विस्तार किया। उसके बाद धीरे—धीरे अखंड भारतवर्ष का राज्य स्वयं में अपना अपना एक—एक देश बनता चला गया। अब भारत, इंडिया बन चुका था जिसे आजाद करते समय अंग्रेजों ने दो हिस्सों में बांट दिया। वर्ष 1947 में जब अंग्रजों ने भारत छोड़ा, उस समय भी भारत में 556 राजा थे। उनके लिए अंग्रेजों ने भारत को आजाद करते समय कहा था कि वह स्वतंत्र हैं। जिन राजाओं को पाकिस्तान के साथ जाना है, वे जाएं; जिन्हें हिंदुस्तान में रहना हो, वे वहां रह सकते हैं। भला हो हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सरदार वल्लभ भाई पटेल तथा पं. जवाहरलाल नेहरू का, जिन्होंने उन सभी राजा—महाराजाओं को भारत में मिलाने का बीड़ा उठाया। वे सफल भी हुए और फिर उसे आप अब अखंड भारत कह सकते हैं।

इतने संघर्ष के बाद हम आजादी की हवा में सांस ले रहे हैं। देश को इतना लूटा गया कि हमारे देश के लोग अब आज भी गरीबी रेखा के नीचे झुग्गियों में, रेल की पटरियों के किनारे, बाढ़ की विभीषिका से जूझते लाखों लोग, हर घड़ी मृत्यु को आमंत्रित करते और दो जून की रोटी को तलाशते लोग अपने जीवन का निर्वाह करते हैं। कोई कुछ कर या कह ले, उससे कुछ नहीं होगा, लेकिन यदि सरकार सोच ले कि हमें इन कमियों को दूर करना है तो कोई शक नहीं कि उसे सफलता न मिले। लेकिन, दुर्भाग्य यह है कि ये बातें हमारे नेता भी जानते हैं और कमियां दूर करना भी चाहते हैं, लेकिन केवल चुनाव से पहले तक। जैसे ही चुनाव जीत जाते हैं, मलाईदार सत्ता मिल जाती है, पलटकर इन सबको देखने की फुरसत उनके पास कहां होती है। यदि उन्हें कुछ दिखाई देता है तो वह है स्व—विकास।

इन नेताओं की सोच यह है कि यदि समाज शिक्षित हो गया, इनकी गरीबी दूर हो गई तो फिर उनकी जयकारा कौन लगाएगा, उन जैसे जुमलेबाजों और ठगों को वोट कौन देगा? फिर कहां वह चकाचक वस्त्र, लंबी—चौड़ी विदेशी गाड़ियों, फाइव स्टार होटलों में अय्याशी कर सकेंगे! इसलिए जो जहां है, उन्हें वहीं रहने दो और अपना सभी प्रकार का ‘विकास’ करते रहो। कुंठा मनुष्य के आत्मबल को छिन्न भिन्न कर देता है, सुखद बात यह है कि हम भारतीय आशावान और विश्वास पर जीने वाले हैं, इसलिए आजादी के 75वें वर्ष के बाद हमारा जीवन स्तर सुधरेगा, हमारा देश गरिमामय  विकास निश्चित रूप से करेगा और हमारे नेता हमारे आदर्श बनेंगे, इतना गुमान तो हम भी पालते हैं। जयहिंद।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

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