गणतंत्र दिवस विशेष: हिंदी राष्ट्र भाषा नहीं, हॉकी राष्ट्रीय खेल नहीं

राजेंद्र सजवान

देश को आज़ाद हुए 73 साल हो चुके हैं और संविधान को लागू हुए 71 साल। लेकिन आज तक भारतीय लोकतंत्र अपना राष्ट्रीय खेल तय नहीं कर पाया है। कारण कोई भी रहा हो पर 26 जनवरी को भारत का संविधान लागू किया गया जिसमे भारतीय राष्ट्रीय खेल का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। सालों पहले सरकार के खेल मंत्रालय ने भी एक आरटीआई के जवाब में स्वीकार किया था कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का कोई राष्ट्रीय खेल नहीं है।

कोई राष्ट्रभाषा नहीं:

अमेरिका का राष्ट्रीय खेल बेसबॉल, इंग्लैंड का क्रिकेट, जापान का जूडो, ब्राज़ील और फ्रांस का फुटबाल, रूस का शतरंज और इसी प्रकार तमाम देशों के अपने अपने राष्ट्रीय खेल हैं। लेकिन भारतीय संविधान में अनेकों बदलाव के बावजूद आज तक कमल को राष्ट्रीय फूल और हॉकी को राष्ट्रीय खेल का दर्जा नहीं मिल पाया है। तारीफ की बात यह है कि संविधान में हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा भी नहीं है। अर्थात हिंदी की वकालत करना कोरा पाखंड है।

हॉकी से धोखा:

अफसोस कि बात यह है कि हॉकी को हम हमेशा से राष्ट्रीय खेल मानते रहे हैं। 2012 से पहले सरकार और खेल मंत्रालय भी जाने अनजाने हॉकी की वकालत करते रहे। जिस खेल ने देश को नाम सम्मान दिया, पहचान बनाई उसे सभी ने छला। नतीजा यह रहा कि हॉकी का बेताज बादशाह आज अपने खेल में निचले पायदान पर पहुंच गया है। यह भी सच है कि देश में क्रिकेटके अलावा कई अन्य खेल हॉकी से कहीं आगे निकल चुके हैं।

सरकार की बेरुखी:

हैरानी वाली बात यह है कि आजादी से बहुत पहले भारत हॉकी में सुपर पावर बन चुका था। 1928 ,32 और 36 में लगातार तीन ओलंपिक स्वर्ण जीत कर भारतीय हॉकी ने दुनिया का ध्यान आकर्षित किया। आज़ादी के बाद पांच और ओलंपिक खिताबों पर कब्जा जमाया लेकिन सरकारों को हॉकी की कभी फिक्र नहीं रही।

कौन ध्यानचंद?:

पूरी दुनिया भारतीय हॉकी के जादूगर दद्दा ध्यानचंद की कायल रही। भारत में भी उन्हें खूब आदर सत्कार दिया गया । लेकिन जब कभी उन्हें भारत रत्न देने की मांग उठी सरकारें जैसे बहरी हो गईं। हॉकी जादूगर को भुलाने का नतीजा यह रहा कि भारतीय हॉकी का पतन शुरू हो गया। आज आलम यह है कोई भी हॉकी का नाम लेना नहीं चाहता। सही मायने में हॉकी इतनी पिछड़ चुकी है कि उसे राष्ट्रीय खेल बनाने की शिफारिश शायद कोई करे।

क्रिकेट राष्ट्रीय धर्म:

भारतीय खेलों पर सरसरी नज़र डालें तो तमाम ओलंपिक खेलों की हैसियत मिलकर भी क्रिकेट जैसी नहीं है। क्रिकेटर अतिविशिष्ट व्यक्तियों की श्रेणी में आते हैं, जबकि हॉकी या अन्य खेलों को कोई नहीं पूछता। एक जीत क्रिकेट का कद और बढ़ा देती है जबकि हॉकी लगातार सिकुड़ती जा रही है। आज की परिस्थितियों में यदि क्रिकेट दावा पेश करे तो शायद उसे सरकार भी समर्थन दे क्योंकि क्रिकेट की जड़ें बहुत गहरी हैं और राधट्रीय धर्म बन चुका है।

सचिन का भारत रत्न:

हॉकी की क्या हैसियत है, इस बात से पता चल जाता है कि सचिन को बिना मांगे ही भारत रत्न मिल गया। भले ही राजनीति हुई लेकिन ध्यानचंद के लिए कई धरना प्रदर्शन हुए, उनके बेटे अशोक और अनेक ओलम्पियनों ने सरकार से गुहार लगाई पर किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगी। फिर कैसे मान लें कि गूंगी बहरी सरकारें हॉकी को राष्ट्रीय खेल बनाने पर विचार करेंगी!

कुश्ती में है दम:

लगभग साल भर पहले कुश्ती फेडरेशन के अध्यक्ष और सांसद ब्रज भूषण शरण सिंह ने एक पत्रकार सम्मेलन में कहा था कि वह संसद में कुश्ती को राष्ट्रीय खेल बनाने की गुजारिश करेंगे। उन्होंने बाकायदा कहा कि कई नेता- सांसद भी यही चाहते हैं और उनके पक्ष में वोट देने के लिए तैयार हैं। जाने माने कोच द्रोणाचार्य राज सिंह, महा सिंह राव, सतपाल, करतार जैसे धुरंधर चैंपियन भी कुछ ऐसी ही राय रखते हैं। उनका तर्क यह है कि कुश्ती में पिछले कुछ सालों में प्रदर्शन शानदार रहा है और सुशील, योगेश्वर और साक्षी के ओलंपिक पदकों ने कुश्ती का कद बढ़ाया है । वैसे भी कुश्ती शुद्ध भारतीय खेल है, जिसके लिए समर्थन जुटाना आसान रहेगा।

आज के दिन भारतीय लोकतंत्र को खेलों के बारे में सोचने के लिए सबसे अच्छा अवसर है। तब नहीं तो अब सही। कोई न कोई राष्ट्रीय खेल तो होना ही चाहिए। बाबा साहब अम्बेडकर की अनुपम भेंट है भारत का संविधान। उसमें यदि देश का राष्ट्रीय खेल जोड़ दिया जाए तो हो सकता है, दुनिया के सबसे फिसड्डी खेल राष्ट्र का भाग्योदय हो जाए।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.)

 

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