खेल अवार्ड 2020: नियम और मर्यादा ताक पर

राजेंद्र सजवान

राष्ट्रीय खेल अवॉर्ड, 2020 की घोषणा के बाद ऐसे बहुत से खिलाड़ियों और कोचों के फ़ोन आए जिन्हें हमेशा की तरह एक बार फिर से नज़रअंदाज कर दिया गया। सीधा सा मतलब है कि उनकी किस्मत खराब है या खेल अवॉर्ड पाने की कलाकारी सीखनी बाकी है। यह तो खेल मंत्रालय और साई के अधिकारी ही जानें कि खेल अवार्डों के लिए किस तरह की क़ाबलियत चाहिए लेकिन इतना तय है कि जो खिलाड़ी और कोच इस बार सम्मान नहीं पा सके तो भविषय में उनके नाम पर शायद ही कभी गौर किया जाए, ऐसा देश के खेल जानकारों और एक्सपर्ट्स का मानना है।

खेल अवार्डों की ऐसी आँधी ना तो पहले कभी आई और निकट भविष्य में भी शायद ही कभी देखने को मिले। फिरभी अनेक सही हकदार रह गए। हैरानी वाली बात यह नहीं कि खेल अवार्डों की लूट क्यों मचाई गई? अचरज वाली बात यह भी है की जिन नामों की सिफारिश की गई उनमें से अधिकांश खिलाड़ी और कोच ऐसे हैं जिनके नाम तक पहले सुने नहीं गए। जो खेल ओलंपिक में और एशियाड में नहीं, जिनका रिकार्ड बेहद खराब रहा है और जिन्हें खेल मंत्रालय और आईओए मुँह नहीं लगाते उनको भी सम्मान पाने वालों में शामिल किया गया है।

पाँच खेल रत्न, 13 द्रोणाचार्य, 15 ध्यान चन्द और 29 अर्जुन अवार्ड बाँट कर पता नहीं खेल मंत्रालय क्या साबित करना चाहता है पर सब को खुश करने के बावजूद भी असंतुष्टों की कतार लंबी हुई है। तर्क दिया जा रहा है कि महामारी के चलते सालों से नकारे जा रहे नामों को सम्मान दिया गया है। जहाँ तक चयन समिति की बात है तो उसकी बेचारगी को समझा जा सकता है। उसे तो बस पहले से तैयार फरमान पर दस्तख़त करने थे। लेकिन खेल अवार्डों के लिए बनाए गए नियम विनियमों का क्या हुआ? उनकी अनदेखी के मायने भी समझ से परे हैं।

इस बार के खेल रत्नों पर नज़र डालें तो उनमें से कौन है जिसका कद विश्वनाथन आनंद, सुशील कुमार, पीवी सिंधु, योगेश्वर दत, अभिनव बिंद्रा, मैरी काम, बिजेंद्र सिंह, लिएंडर पेस, सायना नेहवाल के आस पास का है? शायद किसी का भी नहीं। ओलंपिक, एशियाड और कामनवेल्थ खेलों के प्रदर्शन और कुल अर्जित अंकों के आधार पर खेल रत्न और अर्जुन अवॉर्ड देने की परिपाटी को भी शायद समाप्त कर दिया गया है। एक तरफ तो देश को खेल महाशक्ति बनाने की बात की जा रही है तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय खेल प्रतिष्ठा के परिचायक खेल अवार्डों से खिलवाड़ किया गया है। हो सकता है कि सरकार की मंशा इन अवार्डों का अस्तित्व समाप्त करने की हो या अवार्डों का नए सिरे से गठन किया जाने का इरादा हो। लेकिन सब को खुश करने की राजनीति समझ नहीं आ रही। सम्मान का इस तरह अपमान करने की नीयत में कोई खोट तो है!

बेहतर होगा जिम्मेदार लोग भविष्य के लिए कुछ ऐसे नियम और मानदंड जरूर सेट कर लें ताकि खेल, खिलाड़ियों और आम खेल प्रेमी का खेल अवार्डों पर विश्वास बना रहे।

यह न भूलें कि जिस देश में गुरु हनुमान, नांबियार, आचरेकर, सतपाल, ओपी भारद्वाज, बलदेव सिंह, इलियास बाबर, हवा सिंह, गोपी चन्द जैसे कामयाब गुरु हुए हैं, उनसे 2020 के द्रोणाचार्यों की तुलना की जाए तो सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा। ज़्यादातर द्रोणाचार्य वो हैं जिन पर सरकारी ठप्पा लगा है और जिनमे से कई एक ने कभी कोई खिलाड़ी तैयार नहीं किया। कई ऐसे भी अर्जुन बन गए जिन्होने कभी मछली की पूंछ पर भी तीर नहीं चलाया। पूर्व में सम्मान पाने वाले खिलाड़ी और कोच अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर कह रहे हैं कि सरकार या तो खेल अवार्डों की बंदरबाँट बंद कर दे या पूरी तरह विराम लगा दे। उन्हें लगता है कि इस बार तमाम नियम कानून ताक पर रखे गए, जबकि ओलम्पिक वर्ष को कोरोना निगल गया था। फिर काहे का दबाव था! हां, यदि इतनी हमदर्दी दिखानी थी तो सभी आवेदन करने वालों को खुश कर देते। ऐसे में किसी की उंगली नहीं उठती।

(राजेंद्र सजवान वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं. आप इनके लिखे लेख www.sajwansports.com पर भी पढ़ सकते हैं.)

 

 

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