बातचीत से ही निकलेगा किसान समस्या का हल
कृष्णमोहन झा
नए कृषि कानून बनाने के पीछे मोदी सरकार की भले ही यह मंशा रही हो कि ये कानून किसानों को जब उनके कृषि उत्पादों का अधिकतम मूल्य अर्जित करने में मददगार साबित होंगे तब उनकी सारी शंकाओं का स्वयंमेव समाधान हो जाएगा और सरकार भी 2022 तक किसानों की आय दुगनी करने का अपना वादा पूरा करने में सफल हो सकेगी परंतु किसान अपने आंदोलन के माध्यम से सरकार की नेकनीयती पर जो अविश्वास व्यक्त कर रहे हैं उसने सरकार किसानों के बीच दुर्भाग्यपूर्ण टकराव की स्थिति पैदा कर दी है।
किसान संगठनों के नेताओं और सरकार के बीच बातचीत के कई दौर संपन्न हो चुके हैं परन्तु अभी तक हर दौर की बातचीत का नतीजा ढाक के तीन पात कहावत तक ही सीमित रहा है। सरकार का कहना है कि वह किसानों के साथ हमेशा ही बिना किसी पूर्वाग्रह के बातचीत जारी रखने के लिए तैयार है परंतु किसान आंदोलन के नेता सबसे पहले नए कृषि कानूनों को रद्द किए जाने की मांग पर अड़े हुए हैं और अब दोनों पक्षों में सुलह सफाई की सारी संभावनाएं धीरे धीरे धूमिल पड़ती जा रही हैं। यह स्थिति निःसंदेह दुर्भाग्यपूर्ण है। इस बीच दिल्ली में किसान के धरना प्रदर्शन अब दूसरे पखवाड़े में प्रवेश कर गया है।
सुकून की बात यही है कि दिल्ली में किसानों का यह आंदोलन अभी बेहद अनुशासित और शांतिपूर्ण रहा है जिसके लिए किसान साधुवाद के पात्र हैं लेकिन अब जो संकेत मिल रहे हैं वे उनसे आशंकाओं को भी बल मिल रहा है। विगत कई दिनों से आपसी बातचीत के जरिए किसानों की सारी आशंकाओं का समाधान करने की हर संभव कोशिश में जुटे केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने एक पत्रकार वार्ता में किसानों को सरकार के साथ पुनः चर्चा के लिए आमंत्रित करते हुए कहा है कि सरकार ने किसानों को जो प्रस्ताव भेजा है उस पर वे विचार करें फिर वे जो कहेंगे उस पर सरकार भी अवश्य विचार करेगी।
सरकार ने बातचीत के रास्ते हमेशा खुले रखे हैं। संवाद से ही समस्या का हल निकाला जा सकता है। उधर किसान संगठनों के नेताओं का कहना है कि उनकी ओर से वार्ता का क्रम भंग नहीं किया गया है, दरअसल सरकार घुमा रही है। गौरतलब है कि केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने पत्रकार वार्ता में किसानों को आश्वस्त किया था कि नए कृषि कानूनों के लागू होने के बाद भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की वर्तमान व्यवस्था जारी रहेगी और किसानों की इस मांग पर सरकार लिखित आश्वासन देने के लिए तैयार है।
सरकार को नए कानून में यह प्रावधान करने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि नए कृषि कानूनों के तहत व्यापार करने वाली कंपनियों के पंजीकरण के नियम बनाने का अधिकार राज्य सरकारों को होगा। सरकारी मंडी के बाहर व्यापार करने वाली निजी कंपनियों पर राज्य सरकारें टैक्स लगाने के लिए स्वतंत्र होंगी। क़ृषि मंत्री ने इस पत्रकार वार्ता में किसानों की सारी आशंकाओं का सिलसिलेवार निराकरण करते हुए कहा कि संविदा खेती में विवाद की स्थिति में किसानों को एसडीएम कोर्ट के अलावा दीवानी अदालत में जाने की भी छूट होगी।
कृषि मंत्री द्वारा पत्रकार वार्ता में की गई यह घोषणा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानी जा रही है कि खेती-जमीन पर कंपनी द्वारा बनाई गई संरचना को एक निश्चित अवधि के बाद हटाने की बाध्यता भी नए कानून में है अन्यथा उस संरचना पर किसान का अधिकार होगा। उस जमीन पर किसी तरह का कर्ज नहीं लिया जा सकेगा और न ही जमीन खेती की कुर्की अथवा नीलामी की जा सकेगी।
कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने अपनी इस पत्रकार वार्ता में किसानों की सारी आशंकाओं पर जिस तरह विस्तार के साथ सरकार का पक्ष रखा है वह सरकार की नेकनीयती को उजागर करने के लिए काफी है। अब गेंद किसान संगठनों के पाले में है। उन्हें ही फैसला करना है कि वे सरकार के साथ पुनः बातचीत का सिलसिला प्रारंभ करते हुए समस्या का हल खोजने में अपनी रुचि प्रदर्शित करें अथवा आंदोलन को जारी रखें लेकिन एक बात तो तय है कि अगर किसान तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग पर अड़े रहते हैं तो सरकार द्वारा उनकी यह मांग स्वीकार् किए जाने की संभावनाएं नहीं के बराबर हैं।
यहां यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद भी सरकार और आंदोलनरत किसानों के बीच बातचीत का सिलसिला जारी रखने के पक्ष में अपनी राय कई अवसरों पर व्यक्त कर चुके हैं। इसका परोक्ष प्रमाण एक बार फिर कल उस समय मिला जब नए संसद भवन के शिलान्यास के अवसर पर वे अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि महान संत गुरु नानक देव ने कहा था कि जब तक दुनिया रहे संवाद कायम रहना चाहिए। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी परोक्ष रूप से यही संदेश नए कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब से दिल्ली आकर आंदोलन कर रहे किसान संगठनों के नेताओं को देना चाहते थे कि वे सरकार के साथ पुनः वार्ता का आमंत्रण स्वीकार करें।
किसान संगठनों को अब यह भी तय करना होगा कि वे अगर सरकार से वार्ता के किसी प्रस्ताव की राह देख रहे हैं तो अपने आंदोलन को तेज करने के लिए वे ऐसा कोई कदम न उठाएं जिनसे बातचीत सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में होने की संभावनाओं पर ही विराम लग जाए। उन्हें यह तो मानना ही होगा कि जब 9 दिसंबर को सरकार के साथ उनकी बातचीत का कार्यक्रम पहले ही तय हो चुका था तब 8 दिसंबर को भारत बंद के उनके आह्वान से उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ। उनके इस आह्वान ने कुछ राजनीतिक दलों को अपने राजनीतिक हित साधने की कोशिश का एक अवसर अवश्य उपलब्ध करा दिया।
सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि किसान संगठनों ने अपनी मांगों के पक्ष में राष्ट्रपति को ग्यापन देने का अधिकार पांच राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को कैसे दे दिया। सवाल यह उठता है कि राष्ट्रपति से भेंट करने वाले प्रतिनिधि मंडल में एक भी किसान संगठन का प्रतिनिधि शामिल नहीं था। किसान संगठनों को इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि अपना जनाधार खो चुके राजनीतिक दलों को उनके आंदोलन की बागडोर थामने का मौका देना आंदोलन को कमजोर कर सकता है।फिलहाल सरकार और किसानों के बीच बातचीत के रास्ते में जो गतिरोध बना हुआ है उसे देखते हुए इस आंदोलन के जल्दी समाप्त हो जाने के कोई आसार नहीं आ रहे हैं। किसानों की ओर से यह प्रचारित किया जा रहा है कि सरकार बातचीत के नाम उन्हें घुमा रही है और सरकार किसानों पर हठ न छोड़ने का आरोप लगा रही है।
आंदोलनकारी किसान अगर अब सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए दूसरे राजमार्गों को अवरुद्ध करने और रेलगाड़ियों को रोकने की योजना बना रहे हैं तो इससे उन्हें क्या हासिल होगा इसकी कल्पना तो वही कर सकते हैं परंतु ऐसे कदमों से वे उनके उस अनुशासित और शांतिपूर्ण आंदोलन के प्रति जनता की राय अवश्य बदल सकती है जो आंदोलनों के इतिहास में अनूठा साबित हो सकता था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतक विश्लेषक हैं. )