जब काम का बोझ दिल का बोझ बन जाए: आईओए में हंगामा क्यों है बरपा?

राजेंद्र सजवान

भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष डाक्टर नरेंद्र ध्रुव बत्रा और महासचिव राजीव मेहता के बीच काम के बोझ को लेकर ऐसी ठनी कि परस्पर ईमेल पत्र व्यवहार से शुरू हुआ आरोपों का आदान प्रदान अब गंभीर रूप ले चुका है। पिछले कुछ दिनों में शुरू हुई लेटरबाजी में अब कई और पात्र शामिल हो गए है। यदि यूँ कहें कि भारतीय खेलों और खेलसंघों को सरंक्षण देने वाली शीर्ष इकाई सीधे सीधे दो फाड़ हो गई है तो ग़लत नहीं होगा। उस समय जबकि पूरा देश और दुनिया कोविड 19 से जूझ रहे हैं, हज़ारों लाखों बेमौत मारे जा रहे हैं, आईओए के दो बड़ों के बीच का शक्ति प्रदर्शन किसी को भी रास नहीं आ रहा। हर कोई पूछ रहा है कि आख़िर ऐसा क्या हो गया कि दोनों एक बिल्डिंग में बैठ कर बातचीत की बजाय ईमेल द्वरा अपनी भड़ास निकाल रहे हैं।

दरअसल, खटास की शुरुआत तब से हुई जब डाक्टर बत्रा ने राजीव मेहता पर कटाक्ष किया कि उनसे काम संभाले नहीं संभल पा रहा। ऐसे में लगता है कि उन पर काम का बोझ ज़्यादा है और बेहतर है कि उनसे काम वापस ले लिया जाए या किसी और के साथ बाँटा जा सकता है। उन्होने मेहता को अपने परिवार के साथ नैनीताल में समय बिताने की हिदायत भी दे डाली। जवाब में मेहता ने लिखा की वह अपना काम पूरी ईमानदारी और निष्ठा से कर रहे हैं और साथ ही अपने परिवार की ज़रूरतों को भी पूरा कर रहे हैं। लेकिन उनका यह कहना कि यदि अध्यक्ष महोदय को मेरे काम की ज़्यादा चिंता है तो सचिव का चुनाव लड़ते, आग में घी डालने जैसा रहा। बस इसके बाद से दोनों तरफ से घमासान मच गया । लगे हाथों आईओए के नैतिकता आयोग को भंग कर दिया गया है और बहुत जल्दी ही कुछ ऐसे फ़ैसले लिए जा सकते हैं जिनसे आईओए के संविधान का हनन हो सकता है और गुटबाजी खुल कर सामने आ सकती है। लेकिन यह लड़ाई मात्र दो शीर्ष पदाधिकारियों की नहीं है, यह ना भूलें कि कुछ छुपे हुए अवसरवादी खुल कर सामने आ सकते हैं, हालाँकि कुछ एक तो अपना रंग दिखाना शुरू कर चुके हैं।

देखा जाए तो जो कुछ चल रहा है, यही आईओए का चरित्र भी रहा है। थोड़ा पीछे चलें तो पूर्व अध्यक्ष सुरेश कलमाडी और राजा रणधीर सिंह, उनके बाद रामाचंद्रन और राजीव मेहता के बीच भी खींच तान के मामले सामने आए लेकिन अब हालत इसलिए बदल गए हैं क्योंकि डाक्टर बत्रा और राजीव मेहता के इर्द गिर्द मंडराने वाले परिपक्व हो गए हैं। उनका काम दो बड़ों को लड़ाना और अपना मतलब निकालना रहा है। यही लोग पिछले कई सालों से अध्यक्ष और महासचिव की गुटबाजी को हवा देकर अपने स्वार्थ साधते आए हैं।

देश के खिलाड़ी, खेल अधिकारी और ओलंपिक इकाइयों के प्रमुख मानते हैं कि डाक्टर बत्रा का कद बहुत उँचा है। वह भारतीय ओलंपिक इकाई के प्रमुख होने के साथ साथ विश्व हॉकी के शीर्ष पद पर विराजमान हैं। ज़ाहिर है, उन पर काम का बोझ ज़्यादा होना चाहिए, और शायद होगा भी लेकिन उनके काम करने का तरीका ऐसा है कि साथी और सहयोगी तारीफ़ करते नहीं थकते। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बत्रा और मेहता गोआ में होने वाले राष्ट्रीय खेलों के आयोजन को लेकर दो धड़ों में बंट गए थे। एक धड़ा चाहता था कि खेल इसी साल अक्तूबर में आयोजित किए जायं लेकिन बत्रा का मानना यह था कि कोरोना के कहर के चलते संभव नहीं हो पाएगा। वैसे भी गोवा के कई स्टेडियम तैयार नहीं हैं और खिलाड़ी कोरोना से बचने के लिए घरों में क़ैद हैं। उन्हें तैयारी के लिए समय नहीं मिल पाया तो आयोजन का क्या फायदा!दोनों महाशयों को यह नहीं भूलना चाहिए कि चार साल जिस जुगलबंदी के साथ उन्होने भारतीय खेलों को बढ़ावा देने का काम किया है, उसमें खलल आया तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। यह ना भूलें कि पूरा देश और खिलाड़ी उनकी तरफ देख रहे हैं। यही मौका है कि उन्हें आईओए में अनुशासन बनाए रखने के साथ साथ खेल मंत्रालय और तमाम खेल संघों के साथ मिल कर चलना है।बेशक, टोक्यो ओलंपिक के अच्छे नतीजों के लिए आईओए की एकजुटता के मायने हैं।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं। ये उनका निजी विचार हैचिरौरी न्यूज का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है।आप राजेंद्र सजवान जी के लेखों को  www.sajwansports.com पर  पढ़ सकते हैं।)

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