जो स्वीटी भाटिया को नहीं जानता, फुटबाल क्या जानेगा!

राजेंद्र सजवान
पिछले पचास सालों में जिसने दिल्ली की फुटबाल को करीब से जाना पहचाना है, स्थानीय फुटबाल की राजनीति को जिया और झेला है, वह यदि नरेंद्र कुमार भाटिया(स्वीटी भाटिया) को नहीं जानता तो शायद कुछ भी नहीं जानता। यह मेरा सौभाग्य है कि भाटिया जी को उस दौर में करीब से जानने पहचानने का अवसर प्राप्त हुआ जब दिल्ली अपनी फुटबाल के स्वर्णिम दौर से नीचे उतर रही थी और एक अलग तरह की राजनीति के चलते दिल्ली साकर एसोसिएशन घुटन महसूस करने लगी थी।

उस समय जबकि भाटिया जी फुटबाल मैदान से स्थानीय फुटबाल की राजनीति में दाखिल हुए, दिल्ली के क्लबों में मुस्लिम, बंगाली और गढ़वाली-कुमाउनी खिलाड़ियों की तूती बोल रही थी। फुटबाल का स्तर भी काफी ऊंचा था। दिल्ली लीग को तमाम समाचार पत्र पत्रिकाओं में लीड खबर के साथ स्थान मिलता था। ऐसा इसलिए संभव हो पाया , क्योंकि स्वीटी भाटिया के मीडिया कर्मियों के साथ मधुर संबंध थे, जोकि आज भी जस के तस बरकरार हैं।

लेकिन क्योंकि भाटिया अब 70 पार कर चुके हैं, इसलिए फुटबाल दिल्ली के कर्णधारों ने उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल बाहर किया है। नतीजा सामने है, पिछले दो-तीन सालों में दिल्ली की फुटबाल लगातार अपनी पहचान खो रही है। बेशक, दोष नये अध्यक्ष शाजी प्रभाकरण का नहीं है। लेकिन उनके इर्द गिर्द चाटुकारों और जी हुजूरों की जो भीड़ जमा हो गई है उसे भाटिया जैसे लोग रास नहीं आते। यही कारण है कि पचास सालों तक फुटबाल की सेवा करने वाले अनुभवी और विभिन्न पदों पर काम करने वाले समर्पित इंसान को दरकिनार कर दिया गया है।

यह सही है कि पद प्रतिष्ठा हमेशा नहीं रहते और नये चेहरों के दस्तक देने पर पुरानों को जाना पड़ता है। लेकिन नरेंद्र भाटिया का योगदान इतना बड़ा रहा है कि डीएसए को उनकी मर्ज़ी जान लेने के बाद ही कोई फ़ैसला लेना चाहिए था। वह एक साधारण सदस्य से संयुक्त सचिव, कोषाध्यक्ष, सचिव, वरिष्ठ उपाध्यक्ष पद पर रहे। और अध्यक्ष इसलिए नहीं बने क्योंकि उमेश सूद, सुभाष चोपड़ा और कई अन्य के लिए त्याग किया। स्थानीय फुटबाल को सबसे बुरे दौर से निकाल कर उँचाई तक ले गए। मैदान की व्यवस्था से लेकर, रेफ़री, मुख्य अतिथि और अंतत: खबर छपवाने का जिम्मा उनके मज़बूत कंधों पर रहा।

अपनी व्यवहार कुशलता के चलते वह किसी भी नेता, अभिनेता और धुरंधर पत्रकारों को स्टेडियम में खींच लाते रहे। अंबेडकर स्टेडियम में पानी देने, यार दोस्तों को चाय पानी पिलाने से लेकर खबर टाइप करने और कभी कभार बिगड़ैल और मक्कार क्लब अधिकारियों की मार खाने में भी पीछे नहीं रहे।

बेशक, दिल्ली की फुटबाल में यदि थोड़ा बहुत बचा है तो स्वीटी भाटिया के कारण। डीसीएम, डूरंड, सुपर साकर, आईएसएल, संतोष ट्राफ़ी राष्ट्रीय चैंपियनशिप, अन्य कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आयोजन करने में यदि दिल्ली को कामयाबी मिली तो इसलिए क्योंकि भाटिया नेतृत्व कर रहे थे। भारतीय फुटबाल फ़ेडेरेशन में उनकी गहरी पैठ रही। जियाउद्दीन, दास मुंशी और प्रफुल्ल पटेल के करीबी होने का फ़ायदा दिल्ली की फुटबाल को मिला। स्वीटी भाटिया के पास अपार अनुभव है और यदि उनके अनुभव का लाभ मिलता रहा तो दिल्ली की फुटबाल अपना खोया गौरव फिर से पा सकती है।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं। ये उनका निजी विचार हैचिरौरी न्यूज का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है।आप राजेंद्र सजवान जी के लेखों को  www.sajwansports.com पर  पढ़ सकते हैं।)

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