आख़िर ये द्रोणाचार्य किस मर्ज़ की दवा हैं? विदेशी का मोह किस लिए?

राजेंद्र सजवान
टोक्यो ओलंपिक में पद्क की दावेदार कही जा रही भारतीय हॉकी टीम के लिए एक बुरी खबर यह आई है कि उसके हाईपरफार्मेंस डायरेक्टर डेविड जान ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया है। महामारी के चलते टोक्यो ओलंपिक एक साल के लिए स्थगित किया गया है और अनुबंध के हिसाब से आस्ट्रिया निवासी डेविड जान को सितंबर, 2021 तक भारतीय टीम के साथ जुड़े रहना था। परिवारिक कारणों से उन्होने घर लौटने का मन बनाया और भारतीय खेल प्राधिकरण ने हॉकी इंडिया के साथ विचार विमर्श के बाद उनका इस्तीफ़ा मंजूर कर लिया है। अर्थात अब हॉकी इंडिया को नया कोच तलाशना पड़ेगा। लेकिन क्यों? देश के पूर्व खिलाड़ी और हॉकी प्रेमी पूछ रहे हैं की हर साल ढेरों द्रोणाचार्य पैदा करने वाले देश के पास एक भी अच्छा कोच क्यों नहीं है? क्यों बार बार गोरों की शरण में जाना पड़ता है?

किसी कोच का यूँ बीच राह में टीम को छोड़ना हैरान करने वाला फ़ैसला नहीं है। पहले भी कई कोच आते-जाते रहे हैं। सवाल यह पैदा होता है कि क्या डेविड ने सचमुच परिवारिक कारणों से इस्तीफ़ा दिया? सूत्र बता रहे हैं कि हॉकी इंडिया से विवाद के चलते उन्हें ऐसा करने के लिए विवश होना पड़ा। तारीफ की बात यह है कि हमेशा की तरह साई ने बेहद गैर ज़िम्मेदाराना तरीके से उनका वापस जाने का रास्ता साफ कर दिया। यह सब दुखद तो है पर किया भी क्या जा सकता है! हार कर अब एक और कोच की तलाश की जाएगी। उस पर लाखों खर्च किए जाएँगे, देश का पैसा बर्बाद होगा और कोई गारंटी नहीं कि वह भी बीच करार के भाग खड़ा नहीं होगा।

डेविड की माने तो उन्होने अपना काम हमेशा ईमानदारी से अंजाम दिया और कोविद 19 के चलते अपने नई दिल्ली स्थित निवास से कोचों और खिलाड़ियों को आन लाइन क्लास से सिखा पढ़ा रहे थे। लेकिन टीम के चयन और अन्य मुद्दों पर उनकी सलाह नहीं ली जा रही थी, जिस कारण वह बेहद खफा थे। यूँ तो वह 2011 से भारतीय टीम के साथ जुड़े थे। तब चीफ़ कोच माइकल नोब्स के साथ उन्हें पुरुष टीम के फ़िजियो की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। 2012 रियो ओलंपिक के बाद डेविड ने इस्तीफ़ा दे दिया । लेकिन 2016 में उन्हें हाइ परफार्मेंस निदेशक बना कर नया दायित्व सौंपा गया। तर्क दिया गया कि भारतीय खिलाड़ियों का फिटनेस स्तर सुधारने में उनका बड़ा रोल रहा है।

आठ ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी का दुर्भाग्य यह रहा है कि ओलंपिक दर ओलंपिक भारतीय पहचान धूमिल होती चली गई। यह भी सच है कि भारत ने जब जब ओलंपिक पदक जीते, कोच भारतीय थे। करोड़ों खर्च करने पर भी विदेशी कोच कोई बड़ा तीर नहीं चला पाए। आलम यह है कि 2012 के लंदन ओलंपिक में भारतीय हॉकी ने अपना सबसे शर्मनाक प्रदर्शन किया। तब माइकल नोब्स के कोच रहते भारत 12वें और अंतिम स्थान पर रहा। चार साल बाद रियो ओलंपिक में एक और विदेशी रोलेंट औलत्मेंस भी विफल रहा| पदक का दावा करने वाला भारत आठवें स्थान पर ठिठक गया। 2004 के एथेंस ओलंपिक में गेरहार्ड राक दावे करते रह गए और भारत को सातवाँ स्थान ही मिल पाया। भले ही अपने कोाचों के रहते भारत ने आख़िरी ओलंपिक स्वर्ण 1980 के मास्को खेलों में जीता और तत्पश्चात कोई भी भारतीय कोच सफल नहीं रहा लेकिन अपने अपेक्षाकृत बेहतर साबित हुए हैं। सस्ते हैं और अपनी हॉकी को बेहतर समझते हैं।

यह तय है कि अगला कोच भी कोई विदेशी हो सकता है लेकिन हरबेल, किशन लाल, बाल किशन, गणेश, सेड्रिक, भास्करन जैसे कोच विदेशियों पर भारी रहे। डेविड जान को लगभग आठ लाख रुपए मासिक वेतन देने वालों ने शायद ही कभी यह सोचा हो कि इतने खर्च में तीन से चार भारतीय कोच सेवाएँ और बेहतर नतीजे दे सकते हैं। हो सकता है कि साई और हॉकी इंडिया की कोई मज़बूरी हो या व्यक्तिगत स्वार्थ आड़े आते हों लेकिन यह भी बता दें कि जब हमारे कोचों में दम नहीं तो हर साल द्रोणाचार्यों की फ़ौज़ क्यों खड़ी की जा रही है? आख़िर यह माज़रा क्या है? देश पूछता है!

Indian Football: Clubs, coaches and referees included in 'Khela'!

(राजेंद्र सजवान वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं. आप इनके लिखे लेख www.sajwansports.com पर भी पढ़ सकते हैं.)

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *